Book Title: Sramana 1997 01
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 103
________________ १०० : श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९७ जैसा कि लेख के प्रारम्भ में कहा जा चुका है इस गच्छ की दो शाखाओं-त्रिभवीया और तालध्वजीया - का पता चलता है। प्रथम शाखा से सम्बद्ध पिप्पलगच्छगुरु-स्तुति और पिप्पलगच्छ गुर्वावली १ का पूर्व में उल्लेख आ चुका है। इसके अनुसार धर्मदेवसूरि ने गोहिलवाड़ (वर्तमान गुहिलवाड़, अमरेली, जिला भावनगर, सौराष्ट्र) के राजा सारंगदेव को उसके तीन भव बतलाये इससे उनकी शिष्यसन्तति त्रिभवीया कहलायी। यह सारंगदेव कोई स्थानीय राजा रहा होगा। पिप्पलगच्छीय प्रतिमालेखों की पूर्वप्रदर्शित लम्बी सूची में किन्हीं धर्मदेवसूरि द्वारा वि० सं० १३८३ में प्रतिष्ठापित एक जिन प्रतिमा का उल्लेख आ चुका है। चूंकि उक्त गुरुस्तुति में रचनाकार ने अपने गुरु धर्मप्रभसूरि को त्रिभवीयाशाखा के प्रवर्तक धर्मदेवसूरि से ५ पीढ़ी बाद का बतलाया है, साथ ही पिप्पलगच्छीय मुनिजनों द्वारा प्रतिष्ठापित प्रतिमाओं पर उत्कीर्ण लेखों की पूर्वप्रदर्शित तालिका में भी धर्मप्रभसूरि (वि०सं० १४७१-१४७६) का प्रतिमाप्रतिष्ठापक के रूप में उल्लेख मिलता है। इसप्रकार अभिलेखीय साक्ष्यों में उल्लिखित धर्मदेवसूरि और धर्मप्रभसूरि के बीच लगभग १०० वर्षों का अन्तर है और इस अवधि में पाँच पट्टधर आचार्यों का पट्टपरिवर्तन असम्भव नहीं, अत: समसामयिकता और नामसाम्य के आधार पर वि० सं० १३८६/ई० सन् १३३० में प्रतिमाप्रतिष्ठापक पिप्लगच्छीय धर्मदेवसूरि और इस गच्छ के त्रिभवीया शाखा के प्रवर्तक धर्मदेवसूरि एक ही व्यक्ति माने जा सकते हैं। ठीक यही बात पिप्पलगच्छगुरुस्तुति के रचनाकार के गुरु धर्मप्रभसूरि और पिप्पलगच्छीय धर्मप्रभसूरि के बारे में भी कही जा सकती ४८ ऐसे भी प्रतिमालेख मिलते हैं जिनपर स्पष्ट रूप से पिप्पलगच्छ त्रिभवीयाशाखा का उल्लेख है। इनका विवरण निम्नानुसार है : क्रमश: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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