Book Title: Sramana 1997 01
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 64
________________ अणगार वन्दना बत्तीसी : ६१ और सुन्दरं की अवहेलना की गयी है। इन काव्यों में सौन्दर्य और सत्य की स्वाभाविकता इतनी प्रचुर मात्रा में पायी जाती है, कि उनसे उदात्त भावनाओं का संचार हुए बिना नहीं रहता।' मुनि चन्द्रभान द्वारा रचित 'बत्तीस सवैया' के माध्यम से जो 'अणगार वंदना' प्रस्तुत की गयी है, वह अत्यन्त भावपूर्ण एवं मार्मिक है। इस लघु रचना में कवि ने अणगार अर्थात् जैन श्रमण (मुनि) का गुणानुवाद कर उनके प्रति अपनी परमभक्ति प्रकट की है, जो अणगार की उत्कृष्ट आध्यात्मिक जीवन शैली को सहज, सरल एवं भावपूर्ण रूप से प्रस्तुत करती है। इस लघु पाण्डुलिपि में कुल ३ पत्र हैं, जिनकी लम्बाई १०१/," चौड़ाई ५" है। प्रत्येक पत्र के दोनों ओर लिखा गया है। प्रत्येक पत्र में करीब १६ पंक्तियाँ हैं, अंतिम पत्र के दूसरी ओर १३ पंक्तियाँ हैं। प्रत्येक पंक्ति में १८-२० (लगभग) शब्द हैं। पाण्डुलिपि के आदि में 'अथ ३२ सवैये लिख्यते' लिखा है तथा अंत में मात्र कवि का नाम आया है, परन्तु संवत् आदि की कोई जानकारी नहीं दी गई है। लिखावट सुन्दर एवं सहज पठनीय है। अणगार अर्थात जिसने अन्त:करण से संसार के घर-बार रूपी सभी प्रकार के परिग्रह का त्याग करके साधना-तपश्चरण का मार्ग अपना लिया, वह श्रमण है। वस्तुत: जैनधर्म में दो प्रकार के आचार प्रतिपादित हैं- १. सागार (श्रावक) तथा २. अनगार (श्रमण) रूप। इनमें सागार, परिग्रह (जीवन की आवश्यक आवश्यकताओं हेतु) सहित श्रावक होता है तथा समस्त परिग्रह रहित श्रमण, साधु अनगार कहा जाता है। मूलाचार (९/२०) में अनगार के पर्यायवाची १० नाम बताये गये हैं- १. श्रमण, २. संयत, ३. ऋषि, ४. मुनि, ५. साधु, ६. वीतरागी, ७. अनगार, ८. भदन्त, ९. दान्त, १०. यति। बत्तीस सवैये की अणगार वन्दना में कवि ने हिन्दी परिवार की विविध भाषाओं के शब्दों का प्रयोग किया है। वस्तुत: हिन्दी मात्र एक भाषा ही नहीं अपितु वह भाषा समूह है जिसके अन्तर्गत ब्रज, राजस्थानी, ढुंढारी, मरु-गुर्जर आदि भाषायें सम्मिलित हैं, जो अपभ्रंश के परवर्तीकाल की हैं, जिन्हें एक सम्मिलित नाम ‘पुरानी हिन्दी' से जाना जाता है। कवि की इस रचना में कहीं-कहीं पंजाबी (आत्मा दा सारे काज) का भी पुट मिलता है। राजस्थानी, गुजराती तथा देशी शब्दों का विपुलता से प्रयोग हुआ है। मन्त्र-तन्त्र, १. वही, पृष्ठ १८१॥ २. समणोत्ति संजदोत्ति य रिसि मुणि साधुत्ति वीदरागो त्ति । णामादि सुविहिदाणं अणगार भदंत दंतेत्ति ।। मूलाचार ९/१२० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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