Book Title: Solahkaran Dharma Dipak
Author(s): Deepchand Varni
Publisher: Shailesh Dahyabhai Kapadia

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Page 4
________________ २] सोलहकारण धर्म । दो प्रकारके होते हैं - (१) शुभ ( २ ) अशुभ । शुभास्रवको पुष्य, अशुभ स्त्रको पाप कहते हैं । तात्पर्य - जीवके रागद्वेषादि रूप द्रव्यकर्मोके परमाणुओंका आत्माकी ओर आना सो अखब कहलाता है । इन द्रव्यकर्मो के वाति अधाति रूपसे दो भेद हैं। ज्ञानावरण ( ज्ञानको न प्रगट होने देनेवाला) दर्शनावरण ( देखनेकी शक्तिको पोकनेवाला), अंतराय (आत्मोपकारी कारणों में विघ्न करनेवाला) और मोहनी ( स्वस्वरूपसे भिन्न प्रवृत्ति करनेवाला) ये चारों पातिकर्म कहे जाते हैं। क्योंकि ये आत्माके स्वरूपका घात करने वाले हैं, नारों को ही है क्योंकि ये जीवके गुणोंको घातते अर्थात् आच्छादित करते हैं। इस कारण जीव अचेतसा हो जाता है । और आयु ( किसी भी गतिमें किसी नियत कालतक स्थिर रखनेवाला), नाम ( अनेक प्रकारके आकार, प्रकार, रूप, गति आदिको प्राप्त करानेवाला ), गोत्र ( ऊच नीचकी कल्पना करानेवाला और वेदनी ( सुखदुखरूप सामग्री मिलानेवाला ) ये चारों कर्म अघाति कहे जाते हैं। क्योंकि ये बाह्य कारण स्वरूप ही हैं। क्योंकि ये घाति कर्मोंके अभाव होते हुये आत्माका कुछ भी बिगाड़ नहीं कर सकते हैं। ये पुण्यरूप | शुभ ) और पापरूप (अशुभ) दोनों प्रकारके होते हैं । अर्थात् इनकी कितनी प्रकृतियां पुण्यरूप हैं और कितनी पापरूप हैं। इन पुण्य प्रकृतियोंमें सबसे उत्तम नामकर्मकी तीर्थङ्कर प्रकृति है । अर्थात् त्रैलोक्यमें तीर्थंङ्करके समान किसीका भी पुण्य तीव्र नहीं होता है । देव देवेन्द्र, नर नरेन्द्र, लग खगेन्द्र, पशु पश्वेन्द्र आदि सब ही वीर्थंकर भगवानके सेवक होते हैं । और जिस भवमें ●

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