Book Title: Shrutdeep Part 01 Author(s): Publisher: Shubhabhilasha Trust View full book textPage 9
________________ संपादकीय 'कल्याणकस्तुतिः' एक लघु रचना है। इस कृति में तीर्थंकरों के कल्याणक दिन का महिमागान किया है, अतः इस का समावेश स्तोत्र साहित्य में होता है। जैन धर्म में द्वादशांग प्रवचन के रचयिता गणधर को अथवा चार प्रकार के संघ को तीर्थ कहा गया है। तीर्थ के स्थापक को तीर्थंकर कहा जाता है। जन्मजन्मांतर की साधना और जगदव्यापिनी करुणा के प्रभाव से विशिष्ट आत्मा तीर्थंकरपद प्राप्त करती है। तीर्थंकरपद प्राप्त करने वाली आत्मा का अंतिम भव विशिष्ट पुण्य वैभव से संपन्न होता है। इसी भव में वे जगत्पूज्य बनते हैं, अतः इस अंतिम भव से संबंधित पांच तिथियाँ विशेष महत्त्व रखती है। तीर्थंकरों की च्यवनतिथि, जन्मतिथि, दीक्षातिथि, केवलज्ञानतिथि और निर्वाणतिथि को कल्याणक तिथि कहा जाता है। चूंकि यह तिथियाँ प्राणिमात्र के कल्याण का कारण होती है अतः कल्याण तिथियाँ कही जाती है। जिस क्षण में तीर्थंकरों के कल्याणकों की घटना साकार होती है, उस क्षण में जगत् के जीवमात्र सुख और प्रकाश का अनुभव करते हैं। सदा दुःख में निमग्न नारकों के जीव भी इस क्षण में आनंद का अनुभव करते हैं। वीतरागस्तोत्र में कलिकालसर्वज्ञ आ. श्रीहेमचंद्रसूरिजी ने कहा हैं नारका अपि मोदन्ते यस्य कल्याणपर्वसु। पवित्रं तस्य चारित्रं को वा वर्णयितुं क्षमः?॥ जैनधर्म में कल्याणतिथियों को अतिपवित्र और आराध्य माना गया हैं। कल्याणतिथियों के दिन तीर्थंकरों की भक्ति, पूजा, उपासना विशेष महत्त्व रखती है। कल्याणक तिथि को आधार बनाकर स्तुति, कथा, देववंदन, चैत्यवंदन, स्तवन आदि की रचनाएं हुई है। 'कल्याणकस्तुतिः' इसी विषय को प्रस्तुत करने वाली प्रासादिक रचना है। इस के कर्ता अज्ञात है। इस स्तुति में तीर्थंकरों के कल्याणक का वर्णन है। जैन आचारमार्ग में तीर्थंकरों की स्तवना करने का एक विशेष विधान प्रचलित है। जिसे देववंदन कहते है। तीर्थंकरों की शब्दवंदना/भाववंदना तीन प्रकार से होती है-जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट। जघन्य चैत्यवंदना में एक स्तुतिगान होता है। मध्यम चैत्यवंदन में चैत्यवंदन, शक्रस्तव, स्तवन और स्तुति के द्वारा वंदना होती है। उत्कृष्ट चैत्यवंदन में पांच शक्रस्तव और आठ स्तुति के द्वारा वंदना होती है। उत्कृष्ट चैत्यवंदन को ही देववंदन कहा जाता है। देववंदन में चार स्तुति के दो कदम्ब होते हैं। पहली स्तुति में विशेष तीर्थंकर की, दुसरी स्तुति में सभी तीर्थंकरो की, तीसरी स्तुति में श्रुतवंदना की जाती है। चतुर्थ स्तुति में सम्यग्दृष्टि देवों का स्मरण किया जाता है। 'कल्याणकस्तुतिः' इसी प्रकार की रचना है। 'कल्याणकस्तुतिः'के प्रथम तीन श्लोक में विशेष तीर्थंकरों के कल्याणक दिन का महिमागान प्रस्तुत है। चौथे और पांचवें श्लोक में सामान्य जिन का स्तुतिगान प्रस्तुत है। छठे श्लोक में प्रवचन की स्तुति की गई है और सातवें श्लोक में इन्द्र आदि सम्यग्दृष्टि देवों का स्मरण किया है। १. तित्थं भंते! तित्थं? तित्थकरे तित्थं? गोयमा! अरिहा ताव नियमा तित्थयरे, तित्थं पुण चाउव्वण्णो समणसंघो पढमगणहरो वा। -आवश्यक नियुक्ति एवं भाष्य टीका-श्लोक ८ तित्थं तित्थे पवयणाणि संगोवंगे य गणहरे पढमे। जो तं करेइ तित्थं-करो य अन्ये कुतित्थिया।।२९३॥ संबोधप्रकरणम् गुरुस्वरूपअधिकार २. नमुक्कारेण जहन्ना, चिइवंदण मज्झ दंडथुइ जुअला। पणदंड थुइ चउक्कग, थयपणिहाणेहिं उक्कोसा॥२३॥ चैत्यवंदनभाष्यPage Navigation
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