Book Title: Shravak Pratikraman Sutra
Author(s): Pushkarmuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 10
________________ सिंहावलोकन करना' भाव प्रतिक्रमण है । वस्तुतः भाव प्रतिक्रमण ही साधना का सौन्दर्य है। प्रतिक्रमण की साधना आध्यात्मिक साधना है। आत्मा मूलतः विशुद्ध है पर अनादि अनन्त काल से राग-द्वेष से ग्रसित होने का कारण अपने शुद्ध स्वरूप को विस्मृत हो गया है, जब वह उसे समझने का प्रयास करता है तब भी अनादि अभ्यासवश भूलें कर देता है, पर जब तक उन भूलों का मार्जन न हो तब तक विकास नहीं हो सकता, प्रतिक्रमण उन भूलों का मार्जन करता है और पुनः भूलें न करने के लिए सावधान करता है। कितने ही मुमुक्षुओं की ओर से यह जिज्ञासा प्रस्तुत की जाती है कि प्रतिक्रमण में पुनरुक्तियाँ बहुत हैं। एक-एक पाठ अनेक बार बोला जाता है। यह प्रतिक्रमण में से पुनरुक्तियाँ निकाल दी जाएँ तो प्रतिक्रमण अधिक सुव्यवस्थित व उपयोगी हो सकता है। उत्तर में निवेदन है कि पुनरुक्ति दोष साहित्य में चुने हुए स्थलों पर ही माना गया है। निम्न स्थलों में पुनरुक्ति दूषण नहीं अपितु भूषण है१. जंणं इमे समणो वा समणी वा, सावओवा, साविया या, तच्चित्ते, तम्मणे, तल्लेसे, तदज्झवसिए, तत्तिव्वज्झवसाणे तदट्ठोवउत्ते, तदप्पियकरणे, तब्भावणाभाविए, अन्नत्थ कत्थइ मणं अकरेमाणे उभओ कालं आवस्सयं करेंति, से तं,लोगुत्तरियं भावावस्सयं। -अनुयोगद्वार सूत्र

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