Book Title: Shravak Pratikraman Sutra
Author(s): Pushkarmuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 8
________________ गया है कि छहों आवश्यकों का प्रतिबोध कराता है। प्रतिक्रमण का अर्थ है-प्रमादवश शुभ योग से हटकर अशुभ योग को प्राप्त करने के पश्चात् पुनः शुभ योग को प्राप्त करना तथा अशुभ योग को छोड़कर उत्तरोत्तर शुभ योग में रमण करना।२ मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और अप्रशस्त योग ये चार दोष साधना के क्षेत्र में अतीव भयंकर माने गये हैं। अतः साधक को इन दोषों के परिहार हेतु प्रतिक्रमण करना चाहिए। मिथ्यात्व को त्यागकर सम्यक्त्व को स्वीकार करना चाहिए । अविरति को छोड़कर व्रत अंगीकार करना चाहिए। कषाय से मुक्त होकर क्षमा, सरलता, निर्लोभता धारण करनी चाहिए, अप्रशस्त योगों को छोड़कर प्रशस्त योगों में रमण करना चाहिए। प्रतिक्रमण के (१) दैवसिक, (२) रात्रिक, (३) पाक्षिक, (४) चातुर्मासिक, और (५) सांवत्सरिक ये पाँच भेद १. स्वस्थानाद्यन्यस्थानं प्रमादस्य वशाद्गतः । तत्रैव क्रमणं भूयः प्रतिक्रमणमुच्यते ॥ -आवश्यक हारिभद्रीयावृत्ति से उद्धृत २. प्रतिवर्तनं वा शुभेषु, योगेषु मोक्षफलदेषु । निःशल्यस्य यतेर्यत्, तद्वा ज्ञेयं प्रतिक्रमणं । -आवश्यक सूत्र, पृ. ५५३/१ ३. मिच्छत्त-पडिक्कमणं तहेव, असंजये य पडिक्कमणं । कसायाणपडिक्कमणं, जोगाण य अप्पसत्थाणं ।। -आवश्यक नियुक्ति, गा. १२५०

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