Book Title: Shravak Pratikraman Sutra
Author(s): Pushkarmuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 7
________________ जब तक विषम भावों की ज्वालाएँ अन्तर्हृदय में दहकती रहेंगी तब तक वह वीतरागी पुरुषों के सद्गुणों का उत्कीर्तन नहीं कर सकता । अतः प्रथम आवश्यक सामायिक है। समता को -अपनाने वाला साधक ही महापुरुषों के गुणों को आदर की निगाह से निहारता है और उन गुणों को जीवन में उतार सकता है, अतएव सामायिक के पश्चात् चतुर्विंशतिस्तव रखा गया है। गुण का महत्त्व समझ लेने के पश्चात् ही साधक गुणी के सामने सिर झुकाता है। भक्ति-भावना से विभोर होकर वन्दन करता है। वन्दन करने वाले साधक का हृदय नम्र होता है और जो नम्र होता है वह सरल होता है, सरल व्यक्ति ही कृत दोषों की आलोचना करता है अतः वन्दन के पश्चात् प्रतिक्रमण आवश्यक रखा गया है। भूलों को स्मरण कर उनसे मुक्ति पाने हेतु तन और मन की स्थिरता आवश्यक है। कायोत्सर्ग में तन और मन की एकाग्रता की जाती है, स्थिर वृत्ति का अभ्यास किया जाता है। जब तन और मन में स्थिरता होती है तभी प्रत्याख्यान किया जा सकता है । मन डाँवाडोल हो तो प्रत्याख्यान संभव नहीं है अतः प्रत्याख्यान को छठा स्थान दिया गया है। इस प्रकार आवश्यक की साधना के क्रम को रखा गया है जो कार्य-कारण भाव की श्रृंखला पर अवस्थित है और आत्म-साधना का अमोघ उपाय है। पूर्व यह बताया जा चुका है कि प्रतिक्रमण यह चतुर्थ आवश्यक है। पर आजकल यह शब्द इतना अधिक प्रसिद्ध हो

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