Book Title: Shramanyopnishad
Author(s): Kalyanbodhisuri
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust

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Page 11
________________ श्रामण्योपनिषद् मा भूत् प्रीतिप्रनाशादि, वैरानुबन्धनं तथा । अग्निशर्मादिवच्चापि, संसारानन्तता मम ॥४॥ इति क्रोधविपाकानां, चिन्तनेन क्षमापरः । विपाकक्षान्तिभेदान्तः-प्रविष्टोऽयं विचक्षणः ॥५॥ ॥ युग्मम् ॥ क्रोधवतेस्तदह्नाय, शमनाय शुभात्मभिः । श्रयणीया क्षमैकैव, संयमारामसारणिः ॥६॥ इत्यादिवच आलोच्य, क्षमायां शूरता हि या । वचनक्षान्तिसञ्ज्ञा सा, तुरीया तु क्षमाविधा ॥७॥ ॥ युग्मम् ॥ सहजैव क्षमा या तु, शुद्धा चन्दनगन्धवत् । अनलस्योष्णतावद्वा, नीरस्य शीततेव वा ॥८॥ अपि महोपसर्गेषु, यया क्षान्तिनियोगतः । सा स्याद् धर्मोत्तरा क्षान्तिः, सर्वोत्तमा मता मतैः ।। १. योगशास्त्रे ॥४-११॥

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