Book Title: Shramanyopnishad
Author(s): Kalyanbodhisuri
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust

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Page 54
________________ श्रामण्योपनिषद् अविसंवादनयोगः कायमनोवागजिह्मता चैव । सत्यं चतुर्विधं तच्च जिनवरमतेऽस्ति नान्यत्र ॥१७४॥ अनशनमूनोदरता वृत्तेः संक्षेपणं रसत्यागः । कायक्लेशः संलीनतेति बाह्यं तपः प्रोक्तम् ॥१७५॥ प्रायश्चित्तध्याने वैयावृत्त्यविनयावथोत्सर्गः । स्वाध्याय इति तपः षट्प्रकारमाभ्यंतरं भवति ॥१७६॥ दिव्यात्कामरतिसुखात्त्रिविधं त्रिविधेन विरतिरिति नवकं । औदारिकादपि तथा तद् ब्रह्माष्टादशविकल्पम् ॥१७७॥ अध्यात्मविदो मूर्छा परिग्रहं वर्णयन्ति निश्चयतः । तस्माद्वैराग्येप्सोराकिञ्चन्यं परो धर्मः ॥१७८॥ दशविधधर्मानुष्ठायिनः सदा रागद्वेषमोहानाम् । दृढरूढघनानामपि भवत्युपशमोऽल्पकालेन ॥१७९॥ આ પાપમય સંસાર છોડી શ્રમણ હું ક્યારે બનું?

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