Book Title: Shramanyopnishad
Author(s): Kalyanbodhisuri
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust

View full book text
Previous | Next

Page 122
________________ ११९ श्रामण्योपनिषद् अंगपूजा सोरठा पीडै दुष्ट अनेक, बाँध मार बहुविधि करें । धरिये छिमा विवेक, कोप न कीजै पीतमा । उत्तम छिमा गहो रे भाई, इह भव जस पर-भव सुखदाई। गाली सुनि मन खेद न आनो, गुन को औगन कहै अयानो । कहि है अयानो वस्तु छीने, बाँध मार बहुविधि करै । घर तें निकारै तन विदारै, बैर जो न तहाँ धरै ॥ जे करम पूरब किये खोटे, सहै क्यों नहिं जीयरा । अति क्रध-अगनि बुझाय प्रानी, सास्य-जल ले सीयरा ॥ ॐ हीं उत्तमक्षमाधर्माङ्गाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा । मान महाविषरूप, करहि नीच-गति जगत में । कोमल सुधा अनूप, सुख पावै प्रानी सदा ॥ उत्तम मार्दव-गुन मन माना, मान करन कौ कौन ठिकाना । वस्यो निगोद माहित आया, दमरी रूकन भाग बिकाया ॥ रूकन बिकाया भाग वश”, देव इकइन्द्री भया । उत्तम मुआ चाण्डाल हुवा, भूप कीड़ों में गया ॥ जीतव्य जोवन धन गुमान, कहा करें जल-बुदबुदा । करि विनय बहु-गुन बड़े जन की, ज्ञान का पावै उदा ॥ ॐ ह्रीं उत्तममार्दवधर्माङ्गाय उर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144