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श्रामण्योपनिषद्
अंगपूजा
सोरठा पीडै दुष्ट अनेक, बाँध मार बहुविधि करें ।
धरिये छिमा विवेक, कोप न कीजै पीतमा । उत्तम छिमा गहो रे भाई, इह भव जस पर-भव सुखदाई। गाली सुनि मन खेद न आनो, गुन को औगन कहै अयानो । कहि है अयानो वस्तु छीने, बाँध मार बहुविधि करै । घर तें निकारै तन विदारै, बैर जो न तहाँ धरै ॥ जे करम पूरब किये खोटे, सहै क्यों नहिं जीयरा । अति क्रध-अगनि बुझाय प्रानी, सास्य-जल ले सीयरा ॥
ॐ हीं उत्तमक्षमाधर्माङ्गाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा । मान महाविषरूप, करहि नीच-गति जगत में ।
कोमल सुधा अनूप, सुख पावै प्रानी सदा ॥ उत्तम मार्दव-गुन मन माना, मान करन कौ कौन ठिकाना । वस्यो निगोद माहित आया, दमरी रूकन भाग बिकाया ॥ रूकन बिकाया भाग वश”, देव इकइन्द्री भया । उत्तम मुआ चाण्डाल हुवा, भूप कीड़ों में गया ॥ जीतव्य जोवन धन गुमान, कहा करें जल-बुदबुदा । करि विनय बहु-गुन बड़े जन की, ज्ञान का पावै उदा ॥
ॐ ह्रीं उत्तममार्दवधर्माङ्गाय उर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।