Book Title: Shramanyopnishad
Author(s): Kalyanbodhisuri
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust
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श्रामण्योपनिषद्
१२१ उत्तम शौच सर्व जग जाना, लोभ पाप को बाप बखाना । आशा-पास महा दुखदानी, सुख पावै सन्तोषी प्रानी ॥ प्रानी सदा शुचि शील-जप-तप, ज्ञान-ध्यान प्रभावतें । नित गंग जमुन समुद्र न्हाये, अशुचि-दोष सुभावते ॥ ऊपर अमल मल भर्यो भीतर, कौन विधि घट शुचि कहै। बहु देह मैली सुगुन थैली, शौच-गुन साधू लहै ॥
ॐ ह्रीं उत्तमशौचधर्माङ्गाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा । काय छहों प्रतिपाल, पंचेन्द्री मन वश करो ।
संजम-रतन सँभाल, विषय-चोर बहु फिरत हैं । उत्तम संजम गहु मन मेरे, भव-भव के भाजै अघ तेरे । सुरक-नरक-पशुगति में नाहीं, आलस-हरन करन सुख ठाहीं ।। ठाहीं पृथी जल आग मारुत, रूख त्रस करुना धरो । सपरसन रसना घ्रान नैना, कान मन सब वश करो ॥ जिस विना नहिं जिनराज सीझे, तू रुल्यो जग-कीच में । इक धरी मत विसरो करो नित, आज जम-मुख बीच में ॥
ॐ हीं उत्तमसंयमधर्माङ्गाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा । तप चाहें सुरराय, करम-सिखर को वज्र है ।
द्वादशविधि सुखदाय, क्यों न करै निज सकति सम । उत्तम तप सब माहिं बखाना, करम-शैल को वज्र-समाना । वस्यो अनादि-निगोद-मँझारा, भू-विकलत्रय-पशु-तन धारा ।।

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