Book Title: Shramanyopnishad
Author(s): Kalyanbodhisuri
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust
View full book text
________________
१२३
श्रामण्योपनिषद् घर माहिं तिसना जो घटावै, रुचि नहीं संसार सौं । बहु धन बुरा हू भला कहिये, लीन पर-उपगार सौं ॥
ॐ हीं उत्तमाकिञ्चन्यधर्माङ्गाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा । शील-बाढ़ नौ राख, ब्रह्म-भाव अन्तर लखो ।
करि दोनों अभिलाख, करहु सफल नर-भव सदा ॥ उत्तम ब्रह्मचर्य मन आनौ, माता बहिन सुता परिचानौ । सहैं वान-वरषा बहु सूरे, टिकै न नैन-वान लखि कूरे ॥ कूरे तिया के अशुचि तन में, काम-रोगी रति करें । बहु मृतक सड़हिं मसान माहीं, काग ज्यों चोंचें भरें । संसार में विषयाभिलाषा तजि गये जोगीश्वरा । 'द्यानत' धरम दश पैंडि चढिकै, शिव-महल में पग धरा ॥
ॐ हीं उत्तमब्रह्मचर्यधर्माङ्गाय अयं निर्वपामीति स्वाहा ।
समुच्चय-जयमाला
(दोहा) दस लच्छन वन्दौं सदा, मन-वांछित फलदाय । कहों आरती भारती, हम पर होहु सहाय ॥
वेसरी छन्द उत्तम छिमा जहाँ मन होई, अन्तर-बाहिर शत्रु न कोई । उत्तम मार्दव विनय प्रकासै, नाना भेद-ज्ञान सब भासै ॥ उत्तम आर्जव कपट मिटावै, दुरगति त्यागि सुगति उपजावै । उत्तम सत्य-वचन मुख बोलै, सो प्रानी संसार न डोलै ॥

Page Navigation
1 ... 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144