Book Title: Shramanyopnishad
Author(s): Kalyanbodhisuri
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust

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Page 125
________________ १२२ श्रामण्योपनिषद् धारा मनुष तन महादुर्लभ, सुकुल आव निरोगता । श्रीजैनवानी तत्त्वज्ञानी, भई विषय-पयोगता ॥ अति महा दुरलभ त्याग विषय, कषाय जो तप आदरें । नर-भव अनूपम कनक घर पर, मणिमयी कलसा धरै ॥ ॐ हीं उत्तमतपोधर्माङ्गाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा । दान चार परकार, चार संघ को दीजिए । धन बिजुली उनहार, नर-भव लाहो लीजिए । उत्तम त्याग कह्यो जग सारा, औषध शास्त्र अभय आहारा । निहचै राग-द्वेष निरवारै, ज्ञाता दानों दान सँभारै ॥ दोनों सँभारे-कूप-जलसम, दरब घर में परिनया । निज हाथ दीजे साथ लीजे, खाय खोया बह गया ॥ धनि साधु शास्त्र-अभय-दिवैया, त्याग राग विरोध को । बिन दान श्रावक साधु दोनों, लहैं नाही बोध को ॥ ॐ ह्रीं उत्तमत्यागधर्माङ्गाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा । परिग्रह चौबिस भेद, त्याग करें मुनिराजजी । तिसना भाव उछेद, घटती जान घटाइए ॥ उत्तम आकिंचन गुण जानो, परिग्रह-चिन्ता दुख ही मानो । फाँस तनक सी तन में सालै, चाह लँगोटी की दुःख भालै । भालै न समता सुख कभी नर, बिना मुनि-मुद्रा धरै । धनि नगन पर तन-नगन ठाड़े, सुर असुर पायनि परें ।

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