Book Title: Shramanyopnishad
Author(s): Kalyanbodhisuri
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust
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श्रामण्योपनिषद्
११५ आकिंचन्यधर्मः आकिंचन्यं ममत्वादि कृतदूरं सुखाकरम् ।
पूजया परया भक्त्या पूजयामि तदाप्तये ॥१॥ ॐ हीं परब्रह्मणे उत्तमाकिञ्चन्यधर्मांगाय नमः जलाद्ययं निर्वपामीति स्वाहा। आकिंचणु भावहु अप्पर झावहु, देहहु भिण्णउ णाणमउ । णिरुवम गय-वण्णउ, सुह-संपण्णउ परम अतिंदिय विगयभउ ॥२॥ आकिंचणु वउ संगह-णिवित्ति, आकिंचणु वउ सुहझाण-सत्ति । आकिंचणु वउ वियलिय-ममत्ति, आकिंचणु रयण-त्तय-पवित्ति ॥३॥ आकिंचणु आउंचियइ चित्तु, पसरंतउ इंदिय-वणि विचित्तु । आकिंचणु देहहु णेह चत्तु, आकिंचणु जं भव-सुह विरत्तु ॥४॥ तिणमित्तु परिग्गहु जत्थ णत्थि, आकिंचणु सो णियमैण अस्थि । अप्पापर जत्थ वियार-सत्ति, पयडिज्जइ जहिं परमेट्ठि-भत्ति ॥५॥ छंडिज्जइ जहिं संकप्प दुटु, भोयणु वंछिज्जइ जहिं अणिट्ठ । आकिंचणु धम्मु जि एम होइ, तं झाइज्जइ णिरु इत्थ लोइ ॥६॥ एहु जि पहावें लद्धसहावें तित्थेसर सिव-णयरि गया । गय-काम-वियारा पुण रिसि-सारा वंदणिज्ज ते तेण सया ॥७॥ ॐ हीं परब्रह्मणे उत्तमाकिंचन्यधर्मागाय पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा ।

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