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श्रमण संस्कृति और उसकी प्राचीनता श्रमण संस्कृति की प्राचीनता :
मोहन जोदड़ो और हड़प्पा के ध्वंसावशेषों ने पुरातत्त्व के क्षेत्र में एक नई हलचल पैदा कर दी है। जहाँ आजतक सभी प्रकार की प्राचीन सांस्कृतिक धारणाएँ आर्यों के परिकर में बंधी थी, वहाँ पर खुदाई से प्राप्त अवशेषों ने यह प्रमाणित कर दिया है कि आर्यों के तथाकथित भारत-आगमन के पूर्व भी यहाँ एक समृद्ध संस्कृति और सभ्यता थी। उस संस्कृति के मानने वाले मानव सुसभ्य, सुसंस्कृत और कालविद ही नहीं, अपितु आत्मविद्या के भी प्रकाण्ड विद्वान् थे। पुरातत्त्वविदों के मतानुसार जो अवशेष मिले हैं, उनका सीधा सम्बन्ध श्रमण संस्कृति से है। आज यह सिद्ध हो चका है कि आर्यों के आगमन के पूर्व ही श्रमण संस्कृति भारतवर्ष में अत्यन्त विकसित अवस्था में थी। पुरातत्त्व सामग्री से हो नहीं, अपितु ऋग्वेद आदि वैदिक साहित्य से भी इस सम्बन्ध में पर्याप्त सामग्री उपलब्ध होती है। : व्रात्य :
अथर्ववेद में व्रात्य शब्द आया है। हमारी दृष्टि से यह शब्द श्रमण परम्परा से ही सम्बन्धित होना चाहिए। . व्रात्य शब्द अर्वाचीन काल में आचार और संस्कारों से हीन मानवों के लिए व्यवहृत होता रहा है। अभिधान चिन्तामणि कोश में आचार्य हेमचन्द्र ने भी यही अर्थ किया है। मनुस्मृतिकार ने लिखा है- जो क्षत्रिय, वैश्य और ब्राह्मण योग्य अवस्था प्राप्त करने पर भी असंस्कृत हैं, वे व्रात्य हैं और वे आर्यों के द्वारा गर्हणीय हैं। उन्होंने आगे लिखा है-- जो ब्राह्मण संतति उपनयन आदि व्रतों से रहित हो, उस गुरु मंत्र से परिभ्रष्ट व्यक्ति को व्रात्य नाम से निर्दिष्ट किया गया है । ताण्ड्य महाब्राह्मण में एक व्रात्य स्तोत्र है, जिसका पाठ करने से अशुद्ध व्रात्य भी शुद्ध और सुसंस्कृत होकर यज्ञ आदि करने का अधिकारी हो जाता है। इस पर भाष्य करते हुए सायण ने भी व्रात्य का अर्थ आचारहीन किया है।
इन सभी अर्वाचीन उल्लेखों में व्रात्य का अर्थ आचारहीन बताया गया है, जबकि इन से पूर्ववर्ती जो ग्रन्थ हैं, उनमें यह अर्थ नहीं है। अपितु विद्वत्तम, महाधिकारी, पुण्यशील और विश्वसम्मान्य आदि महत्त्वपूर्ण विशेषण व्रात्य के लिए व्यवहृत हुए हैं ।
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