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श्रमण संस्कृति और उसकी प्राचीनता
विचारात्मक अहिंसा का ही अपर नाम अनेकान्त है | अनेकान्तवाद का अर्थ है - बौद्धिक अहिंसा । दूसरे के दृष्टिकोण को समझने की भावना एवं विचार को अनेकान्तवादो दर्शन कहते हैं । जब तक दूसरों के दृष्टिकोण के प्रति, विचारों के प्रति सहिष्णुता व आदर-भावना न होगी, तब तक अहिंसा की पूर्णता कथमपि संभव नहीं है । संघर्ष का मूल कारण आग्रह है । आग्रह में अपने विचारों के प्रति राग होने से वह उसे श्रेष्ठ समझता है, और दूसरों के विचारों के प्रति द्वेष होने से उसे कनिष्ठ समझता है । एकान्त दृष्टि में सदा आग्रह का निवास है । आग्रह से असहिष्णुता का जन्म होता है, और असहिष्णुता में से ही हिंसा और संघर्ष उत्पन्न होते हैं । अनेकान्त दृष्टि में आग्रह का अभाव होने से हिंसा और संघर्ष का भी अभाव होता है । विचारों की यह अहिंसा ही अनेकान्त दर्शन है | स्याद्वाद के भाषा प्रयोग में अपना दृष्टिकोण बताते हुए भी अन्य के दृष्टिकोणों के अस्तित्व की स्वीकृति रहती है । प्रत्येक पदार्थ अनन्त धर्म वाला है । तब एक धर्म का कथन करने वाली भाषा एकांश से सत्य हो सकती है, सर्वांश से नहीं । अपने दृष्टिकोण के अतिरिक्त अन्य के दृष्टिकोणों की स्वीकृति वह 'स्यात्' शब्द से देता है । 'स्यात्' का अर्थ है - वस्तु का वही रूप पूर्ण नहीं है, जो हम कह रहे हैं । वस्तु अनन्त धर्मात्मक है। हम जो कह रहे हैं, उसके अतिरिक्त भी अनेक धर्म हैं । यह सूचना 'स्यात्' शब्द से की जाती है ।
स्यात् शब्द का अर्थ - संभावना नहीं, अपेक्षा है। संभावना में सन्देहवाद को स्थान है, जबकि जैनदर्शन में सन्देहवाद को स्थान नहीं है, बल्कि एक निश्चित दृष्टिकोण है ।
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वाद का अर्थ है सिद्धान्त या मन्तव्य । दोनों शब्दों को मिलाकर अर्थ हुआ सापेक्ष सिद्धान्त अर्थात् वह सिद्धान्त जो किसी अपेक्षा को लेकर चलता है और विभिन्न विचारों का एकीकरण करता है । अनेकान्तवाद, अपेक्षावाद, कथंचिद्वाद और स्याद्वाद इन सबका एक ही अर्थ है ।
स्याद्वाद की परिभाषा करते हुए कहा गया है - अपने या दूसरे के विचारों, मन्तव्यों, वचनों तथा कार्यों में तन्मूलक विभिन्न अपेक्षा या दृष्टिकोण का ध्यान रखना ही स्याद्वाद है ।
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