Book Title: Shatkhandagama Pustak 14
Author(s): Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

Previous | Next

Page 20
________________ ( ११ ) विषय में भी जानना चाहिए। मात्र तैजसशरीरकी उत्कृष्ट स्थिति छयासठ सागर लेनी चाहिए । कार्मणशरीर के परमाणु ग्रहण करनेके बाद एक आवलि तक नहीं खिरते, इसलिए इसके परमाणु कुछ एक समय अधिक एक आवलि तक और कुछ दो समय अधिक एक आवल तक इस प्रकार तीन समय अधिक एक आवलिसे लेकर उत्कृष्ट रूपसे कर्म स्थितिप्रमाण काल तक रहते हैं । कार्मणशरीरकी स्थिति में कमसे कम एक आवलिप्रमाण आबाधा काल है, इसलिए यहाँ आबावाको ध्यान में रखकर निर्जराका विचार किया गया है । प्रदेशप्रमाणानुगम में बतलाया है कि पाँचों शरीरोंके प्रदेश प्रत्येक समय में अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धों के अनन्तवें भागप्रमाण प्राप्त होते हैं । और यह क्रम अपनी अपनी स्थिति तक जानना चाहिए । अनन्तरोपनिधामें बतलाया है कि पाँचों शरीरोंके प्रदेश प्राप्त होकर प्रथम समय में बहुत दिये जाते हैं । तथा द्वितीयादि समयोंमें विशेष हीन विशेष हीन दिए जाते हैं । इस प्रकार अपनी अपनी स्थिति पर्यन्त जानना चाहिए । परम्परोपनिधा में बतलाया है कि प्रारम्भके तीन शरीरों के प्रदेश प्रथम समयमें जितने दिये जाते हैं, अन्तर्मुहूर्त जाने पर उसके अन्तिम समय में वे आध दिये जाते हैं । इसलिए इन शरीरोंकी एक द्विगुणहाणि अन्तर्मुहूर्त प्रमाण और नाना द्विगुणहानियाँ आदिके दो शरीरोंमें पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण और आहारकशरीरमें संख्यात समयप्रमाण होती हैं । तथा तैजसशरीर और कार्मणशरीरके प्रदेश प्रथम समय में जितने निक्षिप्त होते हैं, पल्यके असंख्यातवें भाग जाकर वे आधे निक्षिप्त होते हैं। इनकी एक द्विगुणहानि पल्यके असंख्यात प्रथम वर्गमूल प्रमाण है और नाना द्विगुणहानियाँ पल्यके प्रथम वर्गमूलके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । प्रदेशविरच में सोलह पदवाला दण्डक कहा गया है जिसमें पर्याप्तनिर्वृत्ति, निर्वृत्तिस्थान और जीवनीयस्थान इनका स्वतन्त्र भाव से और सम्मूच्र्छन, गर्भज व औपपादिक जीवोंके आश्रयसे स्वस्थान अल्पबहुत्व कहा गया है । उसके बाद इन्हींका परस्थान अल्पबहुत्व कहा गया है । पुनः इसके आगे प्रदेशविरचके छह अवान्तर अनुयोगद्वारोंका नामनिर्देश करके उनके आश्रयसे पाँच शरीरोंकी प्ररूपणा की गई है। उनके नाम ये हैं- जघन्य अग्र स्थिति, अग्रस्थितिविशेष, अग्रस्थितिस्थान, उत्कृष्ट अग्र स्थिति, भागाभागानुगम और अल्पबहुत्व । निषेकप्ररूपणा के अंतिम अनुयोगद्वार अल्पबहुत्व में पाँच शरीरोंके आश्रय से एक गुणहानि और नाना गुणहानियों के अल्पबहुत्वका विचार किया गया है । इस प्रकार अपने अवान्तर अधिकारोंके साथ निषेक प्ररूपणाका कथन करके गुणकार अनुयोगद्वारमें पाँच शरीरोंके प्रदेश उत्तरोत्तर कितने गुणे हैं इस बातका ज्ञान कराने के लिए गुणकारका कथन किया है। पदमीमांसा में औदारिक आदि पाँच शरीरोंके जघन्य और उत्कृष्ट प्रदेशों का स्वामी कौन-कौन जीव है इसका विचार किया गया है । अल्पबहुत्व में औदारिक आदि पाँच शरीरोंके प्रदेशों के अल्पबहुत्वका विचार कर शरीरप्ररूपणा समाप्त की गई है । शरीरवित्र सोपचयप्ररूपणा - यद्यपि पांच शरीरोंमें स्निग्धादि गुणोंके कारण जो परमाणुपुद्गल सम्बद्ध होकर रहते हैं उनकी विस्रसोपचय संज्ञा है । फिर भी यहाँ पर इन विस्रसोपचयोंके कारणभूत जो स्निग्धादि गुण हैं उन्हें भी कारण में कार्यका उपचार करके विस्रसोपचय कहा गया है । इस प्रकार यहां इन्हीं स्निग्वादि गुणोंका इस अनुयोगद्वार में अपने छह अवान्तर अनुयोगद्वारोंका आश्रय लेकर विचार किया गया है । उनके नाम ये हैंअविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणा, वर्गणाप्ररूपणा, स्पर्धक प्ररूपणा, अन्तरप्ररूपणा, शरीरप्ररूपणा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 ... 634