Book Title: Shatkhandagama Pustak 14
Author(s): Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 19
________________ ( १० ) कारणभूत संश्लेश परिणाम प्रबल है जिससे वे निगोदवास छोडने में असमर्थ हैं। अबतक जितने सिद्ध हुए और जितना काल व्यतीत हुआ उससे भी अनन्तगुणे जीव एक निगोदराशिमें निवास करते हैं। यहाँपर वीरसेनाचार्य संख्यात आदिकी परिभाषा करते हुए लिखते हैं कि आय रहित जिन राशियोंका केवल व्ययके द्वारा विनाश सम्भव है वे राशियाँ संख्यात और असंख्यात कही जाती हैं। तथा आय न होनेपर भी जिस राशिका व्ययके द्वारा कभी अभाव नहीं होता वह राशि अनन्त कही जाती हैं। यद्यपि अर्धपुद्गल परिवर्तन काल भी अनन्त माना जाता है, पर यह उपचार कथन है। और इस उपचारका कारण यह है कि यह अन्य ज्ञानोंका विषय न होकर अनन्त सज्ञावाले सिर्फ केवलज्ञानका विषय है, इसलिए इसमें अनन्तका व्यवहार किया जाता है। निगोदराशि दो प्रकारकी है- चतुर्गतिनिगोद और नित्य निगोद। जो चारों गतियोंमें उत्पन्न होकर पुनः निगोदमें चले जाते हैं वे चतुर्गतिनिगोद कहलाते है । इतरनिगोद शब्द इसीका वाचक है और जो अबतक निगोदसे नहीं निकले हैं या सर्वदा निगोद में रहते हैं वे नित्यनिगोद कहे जाते हैं। अतीत काल में कितने जीव त्रसपर्यायको प्राप्त कर चुके हैं इस प्रश्नका समाधान करते हुए वीरसेनस्वामी लिखते हैं कि अतीतकालसे असंख्यातगुणे जीव ही अभीतक त्रसपर्यायको प्राप्त हुए हैं। ___यह अर्थपद है। इसके अनुसार यहाँ आठ अनुयोगद्वार ज्ञातव्य है। वे ये हैं- सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व । यहाँ इन आठों अनुयोगद्वारोंका आश्रय लेकर दो शरीरवाले, तीन शरीरवाले, चार शरीरवाले और शरीर सहित जीवोंका ओघ और आदेशसे विचार किया गया है । विग्रहगतिमें विद्यमान चारों गतिके जीव दो शरीरवाले होते है. क्योंकि उनके तेजस और कार्मण ये दो शरीर पाये जाते हैं। औदारिक, तेजस और कार्मणशरीरवाले या वैक्रियिक, तैजस और कार्मणशरीरवाले जीव तीन शरीरवाले होते हैं। औदारिक, वैक्रियिक, तेजस और कार्मणशरीरवाले या औदारिक, आहारक, तैजस और कार्मणशरीरवाले जीव चार शरीरवाले होते हैं। तथा सिद्ध जीव शरीर रहित होते हैं । यहाँ सत् आदि अनुयोगद्वारोंके आश्रयसे विशेष व्याख्यान मूलसे जान लेना चाहिए । विशेष बात इतनी है कि सूत्रोंमें केवल सत्प्ररूपणा और अल्पबहुत्व प्ररूपणा ही कही गई है। शेष छहका व्याख्यान वीरसेन आचार्य ने किया है। शरीरप्ररूपणा- इसका व्याख्यान छह अनुयोगद्वारोंके आश्रयसे किया गया है। वे छह अनुयोगद्वार ये हैं- नामनिरुक्ति, प्रदेशप्रमाणानुगम, निषेकप्ररूपणा, गुणकार, पदमीमांसा और अल्पबहुत्व । नामनिरुक्तिमें पाँचों शरीरोंकी निरुक्ति की गई है। प्रदेशप्रमाणानुगममें पाँचों शरीरोंके प्रदेश अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवे भागप्रमाण है यह बतलाया गया है । निषेकप्ररूपणाका विचार अवान्तर छह अनुयोगद्वारोंका आश्रय लेकर किया गया है। उनके ये नाम हैं- समुत्कीर्तना प्रदेशप्रमाणानुगम, अनन्तरोपनिधा, परम्परोपनिधा, प्रदेशविरच और अल्पबहत्व। समुत्कीर्तना द्वारा बतलाया गया है कि जिन औदारिक, वैक्रियिक और आहारकशरीरकी वर्गणाओंका प्रथम समयमें ग्रहण होता है उनमें से कुछ एक समय तक, कुछ दो समय तक इस प्रकार तीन आदि समयसे लेकर जिसकी जितनी उत्कृष्ट स्थिति होती है कुछ उतने काल तक रहती हैं। आशय यह है कि इन शरीरोंको स्थितिमें आवाघा काल नहीं होता। इसी प्रकार तैसजशरोरके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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