Book Title: Shataka Trayadi Subhashit Sangraha
Author(s): Bhartuhari, Dharmanand Kosambi
Publisher: Bharatiya Vidya Bhavan
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१४६
भर्तृहरिसुभाषितसंग्रह इयत्येतस्मिन् वा निरवधिचमत्कृत्यतिशयो
वराहो वा राहुः प्रभवति चमत्कारविषयः । महीमेको मनां यदयमवहद् दन्तशल[क ?]लैः
शिरः शेषः शत्रु निगिलति परं संत्यजति च ॥ ४१२ ॥ इयमुच्चधियामलौकिकी महती कापि कठोरचित्तता। उपकृत्य भवन्ति निःस्पृहाः परतः प्रत्युपकारभीरवः ॥ ४१३ ॥ इयमुदरदरी दुरन्तपूरा यदि न भवेदभिमानभङ्गभूमिः। . कथमिह सा दशा सहन्ते कुटिलकटाक्षनिरीक्षणं नृपाणाम् ॥ ४१४ ॥ इह किं कुरङ्गशावक केदारे कलममञ्जरी त्यजसि ।।
तृणवाणस तृणधन्वा तृणघटितः कपटपुरुषोऽयम् ॥ ४१५ ॥ इह तुरगशतैः प्रयान्तु मूर्खा धनरहिता विबुधाः प्रयान्तु पद्याम् । गिरिशिखरगतापि काकपतिः पुलिनगतैनै समत्वमेति हंसैः ।। ४१६ ।। उच्चैरेष तरुः फलं च पृथुलं दृष्ट्वैव हृष्टः शुकः
पक्कं शालिवनं विहाय जडधीस तां नालिकेरी गतः । तामारुह्य बुभुक्षितेन मनसा बुद्धिः कृता भेदने
आशा तस्स न केवलं विगलिता चञ्चुर्गता चूर्णताम् ।। ४१७ ॥ उच्छिष्टं करखपरं पथि गतं मूबँडैधिकृतं विप्रैस् तत्त्वविचिन्तकैर्मनसि तं खात्मप्रबोधे कृतम् ।
412 B N65.-.) त्यतिशये. ~ ") वराहो राहु. ) वहन्तसमये.-) निगfragt:; Et N69; BU N66 (64); RASB G7747 N67 (66); NSI and and Jod 1 N68 (69); Jod 3N66 (67); Pun 2101 N68 (69); Pun 697 and Bik 3275 N68%3B Bar 5199 N713; HU 196N66. - BIS. 1126 (3753) Bhartr. ed. Bohl. extra 16. Haeb. 2. 67. Satakiv. 873; SIRB. p. 248.96.
413 FEN107 (105); RASB G7747 N111; NS1 N115 (118). - BIS. 1128 (3754) Sp-4) इयमुन्नतिसत्त्वशालिनी-') महतां -") दूरतः ( for निःस्पृहा).-4) शङ्कया (for °भीरवः); SA. 27. 63. -") इयमुन्नतसत्त्वशालिनां-") महतां -) दूरतः (for निःस्पहाः)-4) संकटाः (for 'भीरवः); SKG. f. 17b; SRB. p. 49. 157 (Dev
414 HU2145 V95 - SRB. p. 96. 6.
415 - BIS. 1134 (3757); Sp. 939; SRB. p. 233. 99; SRK. p. 180. 6 (Rasikajivana); SU. 1242 (Bh.).
416 - BIS. 1137 (431); Sp. 198; SEB. p. 39. 23 ; Padyaveni 770 (Bh.); PT.8.38%3 BPS. f.20a. 112; SSD. 2. f. 109a.
417 Bik 3280048%3 Ben60-10N47. - BIS. 1161. Subhash. 173.257: SRB. p. 241. 140.
418 F1.2 V110 - १) युक्तं (for मुक्त). --4) मिथस्तालिकाः; SVP159 v extra 203; Pun 697 V122 -१) संदिष्टं करकपरं पथिगतं क्षुद्वैः कृतं निन्दनं.-.)न समितं चास्मप्रबोधैर्नु
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