Book Title: Shataka Trayadi Subhashit Sangraha
Author(s): Bhartuhari, Dharmanand Kosambi
Publisher: Bharatiya Vidya Bhavan

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Page 262
________________ संकीर्णश्लोकाः। गान्धर्व गन्धसंयुक्तं ताम्बूलं भारती कथा । इष्टा भायः प्रिय मित्रमपूर्वाणि दिने दिने ॥ ४८५ ॥ गृहपदमिदं धर्मारण्यं किमत्र विचित्रता 1. भवति मनसो यत्रासङ्गः स एव निवन्धनम् । चरमवयसि त्यक्त्वा गेहं वने वसता मया प्यधिगत इवापत्यस्नेहो लतासु मृगीषु च ॥ ४८६ ॥ ग्रामे ग्रामे कुटी शून्या भक्ष्यमन्नं गृहे गृहे । मार्गे मायें जरद्वस्त्रं वृथा दैन्यं नृपे नृपे ॥ ४८७॥ चक्र सेव्यं नृपः सेव्यो न सेव्यः केवलो नृपः। चक्रस्यापि विरोधेन वासः प्रेतत्वमागतः ॥ ४८८ ॥ चक्षुः संवृणु वक्तू वीक्ष करणं वक्षः समाच्छाद्यतां __ हृद्य फर्जमनेकवावचतुरं शृङ्गाररम्यं वचः। मन्ये ते नवनीतपिण्डसदृशा मूल् भजन्ति स्त्रियं मुग्धे। किं परिवेदितेन वपुषा पाषाणकल्पा वयम् ॥ ४८९ ॥ चत्वारो धनदायादा धर्मानिनृपतस्कराः। ज्येष्ठस्यापि विरोधेन त्रयं कूप्यंतनतिस ॥ ४९० ॥ [चन्द्रः शो]मति निर्मले च गगने ताराविचिवाम्बरे ___ हंसः शोभति पद्मपत्रसलिले वैडूर्यवर्णोदके । हारः शोभति कामिनीकुचतटे स्त्री चञ्चला यौवने राजा शोमति मत्रिभिः परिवृते सिंहासने सुस्थितः॥ १९१॥ चपलतरतरङ्गैदरमुत्सारितोऽपि | प्रथयति तव कीर्ति दक्षिणावर्तशङ्खः । परिकलय पयोधे विष्णुपादाघयोग्यस् तव निकटनिषण्णः क्षुल्लकैः श्लाघ्यता का ॥ ४९२ ॥ 485 0891; [C S96 J; ISM Kalamkar 195 3101 (102); Nag421 8100 - SRB. p. 159. 266. 486 D V146. - ") किमत्र दिवी चिसतां (corrupt); BORI328 V166 (57).-.) यत्रासंतः, Bik3279 V160 (56). 487 Ujj6414 V30. 488 HU2145N9 (4). - SRB. p. 146. 161 (cd var.); Sp. 1378 (evar.). 489 Pun 2127 and Bik 1027 V74; HU271 V75. 490 HU2145 N78 (1) corrupt. - SRB. p. 156. 164 (" तेषां ज्येष्ठावमानेन त्रयः कुप्यन्ति बान्धवाः); SRK. p. 237.67 (Sphutasloka). *491 HU2145 N123 (105). 492 Xe extra 4. - Sp. 1092 ; SRB. p. 216. 21. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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