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[ शा० वा० समुच्चय स्त० ४ श्लोक १४
इदमेव भावयति
मूलम् - क्षणस्थिती तवैवाऽस्य नाऽस्थितियुक्त्यसगतेः ।
न पश्चादपि सालिन व्यवस्थितम् ॥ १४॥ क्षणस्थितः क्षण स्थितिरूपस्यैव क्षणस्थितिधर्मकत्वस्याभ्युपगमे, सदैव द्वितीयादौ क्षण एव अस्य भावस्य, स्थितिर्न भवति युक्त्यङ्गतेः ऋणस्थितिक्षणाऽस्थिन्योविरोधात् । न चेष्टापत्तिरित्याह-न पश्चादपि द्वितीयादिक्षणेऽपि, सा-अस्थितिः नेति, तदस्थिते रेवानुभवान क्षणिकत्वमङ्गप्रसङ्गाच्च ।
द्वितीयादिक्षणाऽस्थितिरपि निवृत्तिरूपा संव्यवहार्येव तान्विकी त्वाद्यक्षण स्थितिरूपेति न दोष इति वाच्यम्, अभावस्याधिकरणानतिरेकेण द्वितीयादिक्षणरूपत्वाद् द्वितीयादिक्षणेषु सतः घटादेः असत्यं व्यवस्थितम् = सिद्धम् तथा च 'सताऽसच्चे' [ लो० १२] इत्याद्युक्तदोषानतिक्रम एव ॥ १४ ॥
[क्षणस्थितिधर्मकत्व की क्षणिकता ]
कारिका १४ में पूर्व कारिका निर्दिष्ट विषय का ही समर्थन किया गया है। पूर्वभाव के मात्रात्मक नाश में जो क्षरणस्थितिधर्मकत्व माना जायेगा वह भी क्षणस्थिति=क्षकमात्रस्थितिरूप हो होगा । और यह दो ही स्थिति में उपपन्न हो सकता है ( १ ) उसे पूर्वभाव के द्वितीय क्षण में ही प्रस्थित भी माना जाय, अथवा (२) उसके द्वितीयक्षण में अर्थात् पूर्वभाव के तृतीय कण में उसे प्रस्थित माना जाए। किन्तु ये दोनों ही पक्ष सङ्गत नहीं हो सकता, क्योंकि प्रथम पक्ष में एक ही क्षरण में उसकी स्थिति और अस्थिति दोनों प्राप्त होगी जो युक्तिविरुद्ध है यदि इस युक्तिविरोध के कारण पूर्वभाव के द्वितोयादि क्षण में उसके भावात्मक नारा के स्थितिमात्र को श्रापत्ति का स्वीकार कर लिया जाय और उसमें क्षणमात्र स्थायित्व की उपपत्ति के लिये उसके द्वितीयादि क्षण में अर्थात् पूर्वमात्र के तृतीय क्षण में उसकी प्रस्थिति मानी जाय तो यह भी उचित नहीं हो सकता। क्योंकि उस क्षण में पूर्वभाव के प्रस्थिति का ही अनुभव होता है। किन्तु यदि पूर्वभाव के उत्तरभावात्मक नाश उस समय यानी तृतीय क्षण में प्रस्थित होगा तो पूर्वभाव की स्थिति के अनुभव की प्रापत्ति होगी । और पूर्वभाव के भावात्मक नाश को अपने द्वितीयादि क्षण में भी प्रवस्थित माना जाय तो उसके अनेक क्षणसंसर्गी हो जाने से उसके क्षणिकस्व का भङ्ग हो जायगा ।
( व्यावहारिक निवृतिरूप प्रस्थिति को कल्पना निरर्थक )
यदि यह कहा जाय कि 'पूर्वभाव के द्वितीयादि क्षण में जो पूर्वभाव को स्थिति होती है यह पूर्वभाव को निवृत्तिरूप है जो उन क्षणो में 'पुत्र भावो निवृत्त:' इस व्यवहार से सिद्ध होने के कारण केवल व्यावहारिक है। इस प्रकार ग्राद्य क्षण में पूर्वमाव की स्थिति हो तात्विक है । और द्वितीयावि क्षरा में उसको ग्रस्थिति केवल व्यावहारिक है । एवं पूर्वभाव का जो भाषात्मक नाश है वह पूर्व" भाव का तात्किनाश है। उसके द्वितीयादि क्षण में जलकी मो व्यावहारिक निवृति रूप अस्थिति