Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 4
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 162
________________ १४८ ] [ शा. वा० समुहषय स्त०४-रलो. ८२ अबुद्धिजनकव्यावृश्या-'अबुद्धिजनकेभ्यो व्यावृत्तः' इति कृत्वा, चतु-यदि बुद्धिप्रसाधकः थु बुद्ध्यु पधायकः रूपक्षणो विकल्प्यते, तदा हि निश्चितम् , अबुद्धित्रात्-बुद्धिभिन्नत्वात् , कथं स रूपस्य साधकः ? । न ह्यबुद्भिजनकव्यावृत्तमयुद्धिजनक भवतीति ॥८२॥ पर आह पा शियावृशिदे मालिको मधु । उच्यते व्यवहारार्थमेकरूपोऽपि तत्वतः ॥२॥ स हि-रूपक्षणः, 'ननु' इति निश्चये, तत्त्वत:=परमार्थतः, एकरूपोऽपिएकस्वभावोऽपि, व्यवहारार्थं व्यावृत्तिभेदेन अरूपजनकादिव्यावृत्तिविशेषेण, रूपादिजनक उच्यते, विरुद्धरूपस्यैकवाभावेऽपि विभिन्नरूपेण कल्पनाया अप्रतिरोधात् , कल्पनायां विषयसत्यस्याऽनियामकत्वादिति भावः ॥८२॥ अवाह अगम्धजननव्यावृत्त्यायं कस्मान गन्धकृत । उच्यते, तदभावाच्चद्भायोऽन्यस्याः प्रसज्यते ||८३॥ अगन्धजननव्यावृत्त्या अयं रूपक्षणः, व्यवहारार्थमेव कस्माद् न गन्धकृदुच्यते ? अगन्धजननच्यावृत्यभावात् चंद्-यदि नोच्यते, तदाऽन्यस्याः -अबुद्धिजनकव्यावृतेः भाव:पारमार्थिकसत्त्वं प्रसज्यते ॥३॥ ततः किमित्याह बौद्ध का अभिमत यह है कि रूपक्षण में प्रवद्धिजनकव्यावृत्ति है जिसका अर्थ है-बुद्धिभिन्नजनकच्यावृत्ति, प्रत एव बुद्धिभिन्न रूप को उत्पन्न करने में कोई बाधा न होने से वह रूपमित्रबुद्धि का उत्पादक होता है।'-किन्तु यह ठीक नहीं है क्योंकि यदि वह बुद्धि भिन्न जनक व्यावृत्त होगा तो वह बुद्धिभिन्न रूप का जनक कैसे होगा क्योंकि बुद्धिभिन्नजनकच्यावृत्त बुद्धिभिन्नजनक नहीं हो सकता ॥१॥ ८२ वों कारिका में बौद्ध की और से उक्त प्रतिषेध का समाधान प्रदर्शित किया गया है बौद्ध का समाधान यह है कि रूपक्षण वस्तुतः एकस्वभाव ही है । केवल व्यवहार के लिये उस में व्यावृत्तिभेद को कल्पना है, अतः जैसे उस में अबुद्धिजनकल्यावृत्ति कल्पित है उसी प्रकार उस में प्ररूपजनकव्यावृत्ति भी कल्पित है। इस दूसरी प्यावृत्ति से वह रूप का भी जनक कहा जाता है । एकस्वमाद वस्तु में परस्पर विरुद्ध विभिन्न रूप से कल्पना करने में कोई बाधा नहीं होती, क्योंकि कल्पना में विषय की सत्ता नियामक नहीं होती। ८२॥ ८३ वीं कारिका में बौद्ध के उपयुक्त समाधान का निरसन किया गया है बौद्ध के उक्त समाधान के सम्बन्ध में ग्रन्थकार का कहना है कि जैसे रूप क्षण में अरूपजनकव्यावति को कल्पना कर के उसे रूपजनक कहा जाता है उसी प्रकार प्रगन्धजनक घ्यावृति की कल्पना कर के उसे गन्धजनक क्यों नहीं कहा जाता? यदि इस के उत्तर में बौद्ध को मौर से यह

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