Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 4
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 185
________________ स्या० ० टीका-हिन्दीविवेचना ] [ १७१ सद्वदेव तस्याऽविरुद्धन्वेनाऽभेदकत्वात् 'मुहूर्त मात्रमहमेकविकल्पपरिणत एवासम्' इत्यबाधितानुभवात् । न च नयायिकेनाप्येतदनुभवापहः कर्तुं शक्यः प्रदोषाध्यवसायस्प धारावाहिकतया समर्थने स्थूलकालमादाय 'पश्यामि' इति प्रत्ययस्य भ्रान्तत्वे तदैक्पप्रत्यभिज्ञायाश्च तज्जातीयाऽभेदविषयकत्वे, घटादौ वर्तमानताप्रत्यय-प्रत्यभिज्ञयोरपि तथात्वे बौद्धसिद्धान्तप्रवे सन्तान में विद्यमान ज्ञान के प्राकारों में विरोध होने पर भी एक सन्तानगत ज्ञानाकारों में प्रक्रोिध हो सकता है । तात्पर्य यह है कि अग्नि और घम पर्यायों का मूलद्रव्य एक है एवं अग्निज्ञान मोर धमज्ञान का मूलभूत बोध भो एक है । मूलभूत व्रव्य का अग्नि-धूमादि रूपमें पूर्वपर्याय परित्याग पूर्वक उत्तरपर्यायात्मना परिणमन होता है और मूलभूतबोध का मी पूर्वाकार परित्यागपूर्वक उत्तर प्राकार में परिणाम होता है किन्तु नील और पोतपर्यायों का एक मूलद्रव्य नहीं है और नोलाकार पोताकार ज्ञानों का एक मूल मूतम्रोष मी नहीं है प्रत एव जैसे नोलपोतपर्यायों में एक मूल द्रव्य का अन्वय नहीं होता उसी प्रकार नीलपीत ज्ञानों में एक मूलभूत बोध का अन्वय नहीं होता। अतः अग्नि और धम के शान में एक बोध के अन्यय के समान नोलपोतज्ञान में एक बोधान्वय कर प्रापावान करना निराधार है। [भिन्नकालीन प्राकार वस्तके भेदक नहीं है ] इस संदर्भ में बौद्ध की घोर से एक यह शंका हो सकती है कि-'एककालीन प्राकारों के भेद से प्राकारवान में भेद न हो यह तो हो सकता है, किन्तु क्रमिक प्राकारों के भेद से भो प्राकारवान का भेद न हो यह युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि जब कमिक पाकारों में भेष है तो पूर्वकालिक प्रकार से प्रभिन्न प्राकारवान् उत्तरकाल में पूर्णकार के न रहने से उस पूर्वाकार से अभिन्न प्राकारवान् भी नहीं रह सकता। एवं उत्तरकालिक प्राकार पूर्व काल में न रहने से उस से अभिन्न अस्कारवान भी पूर्वकाल में नहीं रह सकता । फलतः क्रमिक प्राकारों को किसी एक का प्राकार नहीं माना जा सकता'किन्तु यह शंका ठोक नहीं है क्योंकि जैसे एककालोन आकार प्राकारवान् के भेवक नहीं होसे उसी प्रकार भित्रकालीन प्राकारों भी परस्पर विरुद्ध न होने के कारण प्राकारधान के भेदक नहीं हो सकते, क्योंकि धर्मी को भिन्नता धर्मों की भिन्नता पर नहीं किन्तु धर्मों के विरोध पर आश्रित होती है। 'क्रमिक प्राकारों में भी विरोध नहीं होता' यह बात 'मैं मुहतपर्यन्त एक विकल्प के रूप में परिणत था' इस अबाधित अनुभव से सिद्ध है । यह स्पष्ट है कि इस अनुभव में एक हो की मुहर्त पयन्त एकाकार ऋमिक विकल्पों के रूप में अवस्थिति प्रवभासित होती है, अतः इस अनुभव से एक व्यक्ति में हो कमिक प्राकारों का भाम होने से क्रमिक प्राकारों का अविरोध व्यक्त है [ दोर्घ अध्यवसाय को धारावाहिकज्ञान मानने में नैयायिक को प्रापत्ति । व्याख्याकार का कहना है कि नयायिक मी जो क्रमिक ज्ञानों में एक खोध का अन्वय स्वीकार नहीं करते इस अनुभव का अपलाप नहीं कर सकते । अतः इस अनुभव के अनुरोध से उन्हें भी कमिक ज्ञानों में एक बोध का प्रन्यय मानना पड़ेगा। क्योंकि उसे माने विना इस अनुभव की उपपत्ति करना शक्य नहीं है। यदि वे उक्त अनुभव के विषयभूत बोध यध्यवसाय को धारावाही ज्ञान मान कर इस अनुभव का समर्थन करना चाहे तो यह भी शक्य नहीं है, क्योंकि इस मुहूर्तव्यापी दीर्घ मध्यवसाय को 'पश्यामि' के युगपद् द्वौ नस्त उपयोगी।

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