Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 4
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 200
________________ १८६ ] तदुक्तम् अथ विकल्पस्य स्वभावत एव वैशद्यविरोधः, "न विकल्पानुबन्धस्य स्पष्टार्थप्रतिभासिता | स्वप्नेऽपि समर्पते स्मार्त्तं न च तत्तागर्थहम् ॥ १ ॥ इति चेत् न, स्वप्नदशायामपि स्मरणविलक्षणस्य पुरो वृत्तिहस्त्याद्यवभासिनो बोस्य निर्विकल्पकत्वे, अनुमानस्यापि सशिवस्तुप्राहिणस्तथाप्रसङ्गे विकल्प वार्ताया एत्र व्युपर मप्रसङ्गात् । [ शा० वा० समुच्चय स्त० ४ श्लो० ११३ अथ संहृतसकलत्रिकल्पावस्थायां पुरोवर्तिवस्तुनिर्मासिकल्पनाव्युपरमतो विशदमक्ष प्रभवमत्रिकल्पकमेवानुभूयते, तदुक्तम्- "प्रत्यक्षं कल्पनापोढं प्रत्यक्षेणैव सिध्यति" इत्यादि । तथा"संहृत्य सर्वतश्विन्तां स्तिमितेनान्तरात्मना । स्थितोऽपि चक्षुषा रूपं वीक्षते साक्षजा मतिः ||१||" इति । अतो विकल्पे कदाचित् समनन्तम्पृष्टानि देवाप्यत इति चेत् ? मैवम, तम्यामप्यवस्थायां स्थिरस्थूर स्वभाव शब्दसंसर्गयोग्य पुरोऽवस्थित गवादिप्रतिभासस्यानुभूतेः सविक हो जायगा । इसलिये उस विषय को ग्रहण करने वाला ज्ञान सशि वस्तु का ग्राहक होने से सविकल्पक हो जायगा फलतः चिरातीत भादि विषयों को ग्रहण करने वाला सुगत ज्ञान सविकल्पक हो जाने से सविकल्पक के ही धर्म रूप में वंशय की सिद्धि होगी । जब इस प्रकार वंश सविकल्पक का ही धर्म सिद्ध हो गया, तब सविकल्पक में वंशय का आरोप मानना संगत नहीं हो सकता । इसके अतिरिक्त दूसरी बात यह है कि - विरातीत मावि विषयों में कारणत्य की कल्पना भी दृष्टविरुद्ध है क्योंकि चिरातीत विषयों में कार्योत्पत्ति के अनुगुण कोई व्यापार नहीं हो सकता । व्यापार के विना मी यदि लक्ष्य की प्राप्ति मानी जायगी तो विश्व में कोई दरिद्र न रह जायगा, क्योंकि धनप्राप्ति के लिये निरुद्यमी प्रालसी मनुष्य भी धनवान हो जायगा। श्रतः पूरे विचार का froni यही होता है कि बुद्धशान अर्थप्रभव न होने पर भी जैसे विशद है उसी प्रकार सविकल्पक प्रत्यक्ष भी प्रयंप्रभव न होने पर भी विशद हो सकता है । प्रत एव सविकल्पक में निर्विकल्पक के वैद्य का आरोप बताना कथमपि संगत नहीं हो सकता । यदि यह कहा जाय कि "सविकल्पक में वैशद्य का स्वाभाविक विरोध है, जैसा कि विद्वानों ने इस एक कारिका में कहा है कि सविकल्पक ज्ञान प्रथ का विशदावभासी नहीं होता है- क्योंकि स्वप्न में भी जो अर्थ का सविकल्पक ज्ञान होता है वह ज्ञान स्मरणात्मक एवं स्मृतिमूलक ही होता है। अत एव वह मो अर्थ का विशवग्राही नहीं होता ।" तो यह कथन भी ठीक नहीं है क्योंकि स्वप्नवशा में मी हस्ती में पुरोवृतित्व का ग्राहक स्मरण से विलक्षण बोध होता है, वह अर्थ का विशदग्राही होता है इसलिये सविकल्पक में वंशद्य का स्वभावतो विरोध होने की उपपत्ति के लिये उस बोध को निधिकल्पक मानना होगा । फलतः सशि वस्तु को ग्रहण करने वाले ज्ञान को जब निर्विकल्पक माना जायगा तो अनुमान में भी निर्विकल्पकत्व को प्रसक्ति होगी और इसका दुष्परिणाम यह होगा कि सविकल्पक ज्ञान का अस्तित्व हो समाप्त हो जायगा । प्रतः सविकल्पक में fafeकल्पक के वंश का ध्यास होता है-बौद्ध का यह धभ्युपगम बाधित हो जायगा ।

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