Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 4
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 233
________________ स्पा० क० टीका और हिन्दी विवेचना ] [ २१६ वधक्रिया स्वयमाप्तेनोक्ता यद्यस्मात् तृतीयाया आधेयत्वार्थत्वात् हन्तेः प्राणवियोगानुकुत्र्यापारार्थत्वात् क्तप्रत्ययस्य च तज्जन्यफलशालित्वरूपकर्मत्वार्थत्वात् तत् तस्मात् कारणात् कोऽयम् अप्रामाणिकः वः = युष्माकं क्षणिकताऽऽग्रहः १ बुद्धेन कर्तृ-भोक्त्रोरभेदे प्रतिपादिते तदवगणनेन तद्भेदाभ्युपगमानौचित्यादिति भावः । १२५ ।। अवाक्षेप परिहारावाद्द , सनानापेक्षयैतच्चेदुक्तं भगवता ननु । स हेतुफलभावो यत्तद् 'मे' इति न संगतम् ॥ १२६॥ 'ननु' J ७ 2 एतत् इत एकनवते • [का० १२४] इत्यादि, चेद् भगवता संतानापेक्षयोक्तम्, इत्याक्षेपे, सः- संतानः, यद्यस्मात् हेतु फलभावः, तत् तस्मात् 'मे' इति न संगतम्, हन्तृक्षनिष्ठाया व क्रियाया उच्चारयितृणवृत्तित्वाभावादिति मात्रः ॥ १२६ ॥ हो निर्देश मान्य हैं ग्रन्थकार ने प्रस्तुत कारिका में 'में' शब्द का 'मया' इस रूप में विवरण कर दिया 1 है जिस से उसे श्रम शब्द का षष्ठयन्त रूप समझकर और उस के प्रथ का पुरुष शब्दार्थ के साथ अव होने का न हो और 'मम पुरुषो हत:' इस प्रकार के अर्थ को कल्पना का प्रसङ्ग न हो । इस प्रकार 'मे' शब्द द्वारा बौद्ध मत के प्राप्त पुरुष स्वयं बुद्ध ने प्रतोत काल में की हुई बघ किया को उस के मल-मांग काल में श्रात्मगत बतायी है । क्योंकि में' का जो मया ऐसा विवरण दिया गया है उन विवरण पद में तृतीया का श्राधेयत्व प्रर्थ है और 'हत' शब्द में हुन् धातु का प्राणवियोगानुकूल व्यापार अर्थ है | शब्द के उत्तर श्रूयमाण तृतीया विभक्ति के यत्व अर्थ का उस में अन्वय है । 'हतः ' इस शब्व में हुन् धातु के उत्तर श्रवमाण प्रत्यय का व्यापारजन्यफलशालित्वरूप कर्मस्व प्रथं है । उस के एक देश व्यापार में हुन् धात्वथ व्यापार का प्रभेद सम्बन्ध से अन्वय है । 'घटो रक्तघट.' इस प्रकार के वाक्यों के प्रामाणिक होने से उद्देश्य-विधेष में ऐषय होने पर भी विषेयांश में अधिकावरही बोध मान्य होता है अतः क्तप्रत्ययार्थ के एक देश व्यापार में प्राणवियोगानुकूलव्यापार रूप अधिकार्थ का प्रभेद सम्बन्ध से अन्यम हो सकता है । 'मया हतः' इतने भाग के उक्त अर्थ का पुरुष में धन्वय होने से पुरुष में 'प्रत्मनिष्ठप्राणवियोगानुकूलव्यापाराऽभिव्यापारजन्य प्राणवियोग पपलाश्रयः पुरुषः यह बोध होता है। इस प्रकार के 'भवा पुरुषो हतः इस बुद्ध वचन से यह ज्ञात होता हैं कि पूर्वकाल में किये गये पुरुषवधजन्य पाप के फलभाग के समय वही बुद्ध विद्यमान है जिन्हों ने पूर्वकाल में अपने व्यापार से पुरुष को प्राणों से विद्युक्त किया था। तो इस प्रकार जब बुद्ध के प्राप्त पुरुष में हो कि कर्ता और भोक्ता में प्रभेद का प्रतिपादन किया है तो उस को अवमानना कर के कर्त्ता और भोला में मेव मानना अनुचित है। अतः भावमात्र को क्षणिकता में बौद्धों का प्रप्रामाणिक शाह 'किम्मूलक हैं' कहना कठीन है । १२५ ।। १२६वीं कारिका में बौद्ध मत की उक्त मालोचना पर बौद्धों के आक्षेप और उस के परिहार का वर्णन किया गया है

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