Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 4
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 231
________________ स्वा० क० टीका-हिन्दी विवेचना ] [ २१७ किश्च अन्यद् दूषणान्तरम्, यतः क्षणिकत्वेऽभ्युपगम्यमाने वः = युष्माकम् आर्षार्थोपि आगमार्थोऽपि विरुध्यते असंगतो भवति । अस्य च आर्षार्थस्य विरोधापादनं नाल्पस्य तमस अज्ञानस्य फलम् किन्तु महत एव तदप्रामाण्यापत्तौ तन्मूलकामुष्मिक प्रवृत्तिमात्रविच्छेदादिति भावः || १२३|| किं तदा यस्य विरोधः क्षणिकत्व आपद्यते १ इति जिज्ञासायामाह मूलं हत एकनवते कल्पे शक्त्या में पुरुषो हतः । तेन कर्मविपाकेन पादे विद्धोऽस्मि भिक्षवः ॥ १२४॥ इतः अस्माद् वर्त्तमानात् कालात् अतीते काले मे= मया शक्त्या = स्वव्यापारेण पुरुषो हतः व्यापादित। तेन कर्मविपाकेन - पुरुषव्यापादनजनितकर्मभोगकालाभिमुख्येन 'रोगेण वेदनावान्' इत्यादी पुरुषान्वितवेदनायां रोगजन्यत्वान्वयवद् विपाकान्विते कर्मणि तज्जन्यत्वान्वयात्, भिक्षत्रः ] अहं पादे विद्धोऽस्मि कण्टकेन । तेन सर्वज्ञत्वात् पश्यतोऽपि कण्टकं कथं पादे कण्टकवेधः ? इत्याशङ्का निवर्ततां भवताम्, नियमवेदनीयत्वात् प्रागर्जितकर्मणः । न हृत ममापि फलमदत्वा निवर्तते इति मा कार्षीत् कोऽपीदृशं कर्म- इति शिष्यान् बोधयितु बुद्धस्यैवमुक्तः ११२४|| [ क्षणिकवाद में बौद्धशास्त्र वचन का विरोध ] मावमात्र को क्षरिक मानने पर एवं कार्य-कारण में अन्वय न मानने पर बौद्ध मत में एक अन्य दोष भी है वह यह कि ऐसा मानने पर उनके ऋषि वचन का प्रतिपाद्य अर्थ भी असंगत हो जाता हैं और अपने हो ऋषिवचन का विरोधापादक कथन वक्ता के साधारण प्रज्ञान का नहीं किन्तु महान प्रज्ञान का सूचक है क्योंकि यदि ऋषिवचन श्रप्रमाण हो जायगा तो उसके प्राधार पर पार offee फल के उद्देश्य से उपविष्ट सम्पूर्ण प्रवृत्तियों का लोप हो जायगा ।। १२३॥ १२४ व कारिका में उस प्रार्थवचन का उल्लेख किया गया है - भावमात्र को क्षणिक मानने पर जिसका विरोध प्रसक्त होता है - [ प्रतीतकाल में पुरुष हत्या से बुद्ध के पैर में काँटा चुभा ] प्रस्तुत कारिका द्वारा निर्दिष्ट बौद्ध मत के प्रार्थवचन का अर्थ इस प्रकार है- बुद्धने अपने fort को बोध कराने के लिये यह वचन कहा था कि भाज से पूर्व ६१ वे कल्प में मैंने अपनी चेष्टा से एक मनुष्य का वध किया था उस वधात्मक कार्य से जो पश्यात्मक कर्म उस समय उत्पन्न हुआ उस का भोगकाल उपस्थित होने पर हे भिक्षुत्रों ! मेरे पैर में कांटा चुभ गया है। इससे तुम्हें यह संका नहीं करनी चाहिये कि मैं सर्वज्ञ हूं अतः कांटे को भी देखता हूं इसलिए उससे बचना मेरे लिए प्रत्यन्त सरल है फिर भी मेरे परमे कांटा कैसे चुमे ? क्योंकि पूर्वोपार्जित कर्म का फलयोग नियम से होता है अतः जो कर्म पूर्व में मैंने श्रजित किया है वह विना फल दिये हुये समाप्त नहीं हो सकता । तो तुम्हें मी प्रवश्य हो इस प्रकार का बुरा कर्म नहीं ही करना चाहिये ।

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