Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 4
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 234
________________ २२० ] [ शा० वा० समुच्चय स्त० ४-श्लोक १२७ अभिप्रायान्तरं निराकुरते__ मर्मत हेतुशक्त्या चेत्तस्यार्थोऽयं विषक्षितः। नाऽत्र प्रमाणमत्यक्षा तद्विवक्ष यतो मता ॥१२७॥ तस्य = 'शक्त्या मे' इत्यस्य, ममैव हेतुशक्त्या' इत्ययमों विवक्षितः, शक्तिपदस्य हेतुशक्त्यर्थत्वात , 'मेहत्यस्य च 'मम' इत्यर्थात , 'मे' इत्यस्यैव लक्षणया 'मदीयहन्तक्षणेन' इत्यर्थात् वेति चेत् ? नाऽत्र = ईदृशेऽर्थे प्रमाणम् किश्चित् । यतस्तिद्विवक्षा-बुद्धविवक्षा, अत्यक्षा = अतीन्द्रिया मता, अतस्तादृशबुद्धविवक्षाय नाध्यक्षम् , न वा तन्मूलमनुमानमिति भावः ॥१२७॥ [संतान की अपेक्षा 'मे' यह निर्देश असंगत ] .यदि उक्त प्रालोचना के सम्बन्ध में बौद्धों की पोर से यह बचाव किया जाय कि-"भगवान बुद्ध ने जो चिरपूर्वकाल में पुरुष के वधकर्ता रूप में और थिर उत्तरफाल में उस कर्म के फल भोक्तारूप में अपना ऐक्य बताया है, उन का वह कथन व्यक्ति को अपेक्षा से नहीं किन्तु सन्तान को अपेक्षा से है। जिस का प्राशय यह है कि जिप्त सन्तान का घटक होते हुये मैंने इतने लम्बे पूर्वकाल में पुरुष का वध किया था उसी सन्तान का घटक होने से मुझे इतने लम्बे काल के व्यवधान के बाद उस कर्म का फल प्राप्त हो रहा है।" तो यह बचाव संगत नहीं है क्योंकि सन्तान तो हेतु. फल भावरूप है, अर्थात् पूर्वोत्तर क्षणों का निरन्तर घटित होनेवाला हेतुफलात्मक प्रवाह रूप है। किन्तु उस प्रवाह के मध्य प्राने वाले पूर्वोत्तर भाव नापन्न क्षण भिन्न भिन्न है। पुरुष को बध किया हन्ताक्षण में रहती है, उच्चारयिताक्षण में नहीं रहतो, क्योंकि अस्मत् शब्द को उच्चारयिताक्षण हन्सा क्ष से भिन्न है । प्रतः 'मया' शब्द से उसकी एक संतान निष्ठता का कथन प्रवाह की अपेक्षा युक्ति संगत नहीं हो सकता ॥१६॥ १२७ वी कारिका में इस सम्बन्ध में बौद्ध के एक अन्य अभिप्राय का निराकरण किया गया है['शक्त्या मे' इस को 'मेरे हेतक्षरण की शक्ति से' इस अर्थ में विवक्षा अप्रमारण] उपयुक्त कथन के विरुद्ध बौद्ध की ओर से यदि यह अभिप्राय प्रकट किया जाय कि उक्त आर्षवचन में जो 'मे' शब्द पाया है उस का भ्रम अर्थ है और शक्ति शब्द का अर्थ हेतु शक्ति है। इसप्रकार उस बबन से बुद्ध का यह तात्पर्य उपलब्ध होता है कि मैं सन्तान-प्रवाहरूप हूं, मेरा ही घटक एकक्षरण हन्ताक्षण है वही हेतुशक्तिरूप है । इस प्रकार मेरे हन्ताक्षण में चिरपूर्व काल में पुरुष का वध किया था और मेरा सन्तानीय वर्तमान क्षण उस कर्म का फल भोग रहा है । अत बुद्ध के वचन से कर्तृत्व और भोक्तृत्व की एफव्यक्तिनिष्ठता प्रतीत नहीं होती किन्तु एक सन्ताननिष्ठता प्रतीत होती है। प्रतः समस्तभाव की क्षणिकता का अभ्युपगम करने से उक्त वचन का कोई विरोध नहीं होता ।" किन्तु बुद्ध के उक्त वचन का ऐसा अर्थ मानने में कोई प्रमाण नहीं है। यह भी नहीं कहा जा सकता कि बुद्ध को ऐसी हो अर्थविवक्षा है क्योंकि उनकी ऐसी विवक्षा प्रतोनिय है अतः बुद्ध को उक्तार्थ विवक्षा में न तो प्रत्यक्ष प्रमाण है और न तरमूलक अनुमान प्रमाण भी है। १२७।।

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