Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 4
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 247
________________ [ २३५ क्षणक्षयक्षेपकरी सकाः कर्णामतं वाचमिमा निपीय । जैनेश्वरं सिलिकृते प्रवाविप्रशासन शासनमाश्रयन्तु ॥३॥ इति पपिद्धतश्रीपञ्चविजयसोवरन्यायविशारदपण्डितयशोविजयविरचितायां स्याबावकल्पलाताभिधानायां शास्त्रवार्तासमुच्चयटीकायां चतुर्थः स्तषकः। ___ अभिप्रायः सूरेरिह हि गहनो दर्शनततिनिरस्या दुर्धर्षा निजमतसमाधानविधिना । तथाप्यन्तः श्रीमन्मयविजयविज्ञाहिमजने, न भग्ना घेद् भयितन नियतमसाध्यं किमपि मे ॥१॥ यस्यासन गुरवोऽत्र जीतविजयप्राज्ञाः प्रकृष्टाशया भ्राजन्ते सनया नयादिविजयप्राज्ञाश्च विद्याप्रदाः। प्रेम्णां यस्य च सम पविजयो जातः सुधीः सोदरः, तेन न्यायविशारदेन रचिते ग्रन्थे मति दीयताम् ॥शा सौत्रान्तिक ने रागवश भावमात्र के क्षणिकस्व साधन में प्रसक्त होकर जो अपने उक्त सिद्धान्त सूत्र 'कप्पठिमा पुहई' को हिमा कर दी यानी उस के वास्तवार्थका परित्याग कर दिया उस के कारण वस्तुतः वह सूत्रान्तक है। किन्तु सूत्रान्तक शब्द लिपि लेखक की मूल होने से लोक में सौत्रान्तिक नाम से प्रसिद्ध हो गया । वस्तुत: इस प्रकार सूत्रान्तकही लिपिभ्रम से सौत्रान्तिक हो गया। क्योंकि सौत्रान्तिक शब्द का वास्तव प्रर्थ सूत्रों के यथाधुत प्रर्थ को सिद्धान्तरूप में प्रभ्युपगम करने वाला होता है जो उक्त सूत्रार्थ का त्याग कर देने से सौत्रान्तिक नाम से प्रसिद्ध बौद्ध में संगत नहीं है ।।२॥ व्याख्याकार ने तीसरे पद्य में मनुष्य को 'सकर्ण' शब्द से सम्बोधित करते हुये यह संकेत दिया है कि जिसे करर्ण है उसे कर्ण के लिये प्रमृत के समान सुख देने वाली उस जन वाणी का प्रावर पूर्वक श्रवण करना चाहिये जिस से भावमात्र के क्षणिकत्व पक्ष का निराकरण होता है और सिद्धि जीवन का सर्वोत्तमलक्ष्य प्राप्त करने के लिये जिनेश्वर के उस शासन का प्राश्रय लेना चाहिये जिस में प्रकृष्ट बादपद्धति से प्रामाणिक तत्वों का वर्णन प्राप्य है ॥३॥ अभिप्रायः सूरेः .........इत्यादि पद्यों का विवरण प्रथम स्तबक में प्रा गया है । पंडित श्रीपनबिजय के सहोदर न्यायविशारद पंडित भी यशोविजय विचित स्याद्वादकल्पलतानामक शास्त्रयातासमुच्चयग्रन्थ को टोका का हिन्दी वितरण समाप्त । चौथा-स्तबक-सम्पूर्ण ® সুিিহঙ্গা पृ/पं अशुद्ध शुद्ध प.प. अशुद्ध शुद्ध पृ/पं. अशुद्ध शुद्ध ५/१ क्षणिक क्षणिक ३२/२ स्वभावापि स्वभावोऽपि (२७ बक्ष, वृक्षः, ११/५ सभवात् सम्भवात /११ तम्मात् तस्मात् ४३/२२ होकार हो कर १७/२६ दष्ट्रिगत दृष्टिगत ११६ ईयत्वा झेयत्व ४५/४ च्छदेक च्छेदक १८/२५ उह उन । ३५/१८ दान में दन में २१/८ प्याप्यत्वा-व्याप्यरवा- ३६/१७ संस्कार, संस्कार:, /२३ प्रतियोगगि प्रतियोगि २३/३२ लिने लिये ३७/३ पूवमिदं पूर्वमिदं ५१/२३ श्रयत्ववान् श्रयत्वा२४/२ सगते संगतेः १२ कसष्टि कुष्टि भाववान् २८/६ तन्निवृत्ते तन्निवृत्तः ४०.१६ होती की होती कि ५२/२३ नयायिक नैयायिक

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