Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 4
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 237
________________ म्या० क० टीका-हिन्दी विवेचना ] [ २२३ यतो मां रूपादीनाम् क्षणिकत्वे = क्षणानन्तरं नाशशीलत्वे, द्विविज्ञेयता न भवेत, हि यतः आभ्यां इन्द्रियमनोभ्यां भिन्नकालग्रहे कालभेदेन ज्ञानद्वपचनने तच्छब्दार्थोंपतितः- द्विविज्ञेयत्वशब्दार्थस्य घटमानत्वात् ।। १३१ ।। = एकदापि ताभ्यां ज्ञानद्वयजननाद् द्विविज्ञेयन्त्रमुपपत्स्यत इत्याह-एककालग्रहे तु स्यात्तत्रैकस्याप्रमाणता 1 गृहोत ग्रहणादेव मिश्रया ताथागतं वचः ॥१३२॥ एककालग्रहे तु = एकेन्द्रियमनोभ्यां ज्ञानद्वयजनने तु तत्र = तयोर्मध्ये एकस्व = अभिमतकस्य गृहीतग्रहणादप्रमाणता स्यात् । एवं सति ताथागतं = बौद्धं वचः 'पश्च बाह्या द्विविज्ञेयाः' इति सिध्या= अप्रमाणं स्यात् ॥ १३२॥ पराभिप्रायमाह इन्द्रियेण परिचिन्ने रूपादी तदनन्तरम् 1 यद् रूपादि ततस्तत्र मनोज्ञानं प्रवर्त्तते ॥१३३॥ इन्द्रियेण = इन्द्रियज्ञानेन परिच्छिन्ने गृहीत रूपादौ विषये सदनन्तरम् इन्द्रियपरिच्छेद्यरूपाद्यनन्तरम् यद्रयादि तज्ज्ञानसभानकालभावि ततः इन्द्रियपरिच्छेदात् समनन्तशत्, तत्र = तज्ज्ञानसमानकाल भाविनि रूपादों मनोविज्ञानं प्रवर्त्तते = ग्रहणण्यापू नहीं हो सकते, क्योंकि इन्द्रिय और फन द्वारा भिन्न काल में दो ज्ञानों का जन्म होने पर ही रूप दि विषय द्विविज्ञेय है' इसके शब्दार्थ की उपपत्ति हो सकती है । किन्तु यदि रूप प्रादि एक हो क्षण रहेंगे तो विमिश दो क्षणों में उनके ज्ञान द्वय का जन्म नहीं हो सकता ।।१३१।। १३२ व कारिका में एककाल में इन्द्रिय और मन से ज्ञान द्वय की उत्पत्ति मान कर रूपादि विषयों में द्विविज्ञयता के समर्थन का निराकरण किया गया है यदि एक काल में इन्द्रिय और मन से होनेवाले दो ज्ञानों से रूपादिविषय प्राह्य होते हैं इस अर्थ में रूपादि को द्विविज्ञेय माना जायगा तो उन दोनों में प्रत्येक एक दूसरे से गहोत का ग्राहक होने से दोनों हो श्रप्रमाण हो जायेंगे । श्रत एव तयागत का उक्तबचन रूपादि पाँच पदार्थ हिदिज्ञेय-दो प्रमाणों से जंग होते हैं' अप्रमाण हो जायगा ।। १३२ ।। १३३ व कारिका में इस सम्बन्ध में बौद्ध अभिप्राय को प्रकारान्तर से प्रस्तुत किया है. [ द्विविज्ञेयता के उपपादनार्थ बौद्ध प्रयास ] कारिका का अर्थ इस प्रकार है- रूपादि की द्विविज्ञेयता के सम्बन्ध में बौद्धों का यह कथन है किरूपादि विषय का इन्द्रिय से ज्ञान होने पर इन्द्रिय से ज्ञेय रूपादि के प्रनन्तर इन्द्रियजन्य ज्ञानकाल में जो रूपादि उत्पन्न होता है उस हरावि को मनोविज्ञान ग्रहण करता है और वह मनोविज्ञान निरंतर पूर्ववर्ती इन्द्रियजन्य रूसविज्ञान स्वरूप समनन्तर प्रत्यर्थ से उत्पन्न होता है। इस प्रकार इन्द्रियजन्य

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