Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 4
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

View full book text
Previous | Next

Page 236
________________ २२२ ] [शा वा० समुकचय स्त० ४ श्लोक १३० स्थायित्वोक्तेन दोष इति चेत ! न, एकवचनतानुपपत्तेः । मावृतमकत्वमिति चेत् ! कल्पस्थायित्वाद्यपि तथास्तु । इति स विलुप्त । नरमाद् यथा श्रुतार्थ एवं ज्यायान् ॥१२९।। तथा 'पश्च याह्या विविज्ञेया' इत्यन्यदपि चार्षकम् । प्रमाणमवगन्तव्य प्रकान्तार्थपसाधकम् ॥१३०॥ पञ्च बाह्या रूपादयः, विविज्ञयाः इन्द्रिय-मनोविज्ञानग्राह्याः,' इत्यन्यदपि चाप प्रका. न्तार्थप्रसाधकम्-अक्षणिकत्वप्रसाधकं परापेक्षया प्रमाणमवगन्तव्यम् ।।१३०॥ । कथमेतेदेवमित्याह क्षणिकत्वे यतोऽमीषां न हिविज्ञेयता भवेत् । भिन्नकालग्रहे ह्याभ्यां तच्छब्दार्थोपपत्तितः ॥१३॥ ------ --- [ यह पथिवी कल्पस्थायिनी है. इस वचन का विरोध क्षणिकवादमें ] बुद्ध का दूसरा वचन मी भाबमात्र को क्षणिक मानने पर विरुद्ध होता है इस सूत्र कापट्टाई पुहई मिक्खयो !' से बुद्ध ने भिक्षुत्रों को सम्बोधन कर स्वयं ही पदवी को कल्पपर्यन्त स्थिर बतायो यदि यह कहा जाय कि उसका तात्पर्य पायवी संतान को कल्पपयन्त स्थायी बताने में है त भावमात्र को क्षणिकता पक्ष में उक्तवचन का विरोधरूप दोष नहीं हो सकतातो यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि पृथ्वी सतान मनत पृथ्वीक्षणों का समुदाय रूप होने से अनेक है अतः उसकी विवक्षा होने पर एकवचनान्तपृथ्वो शब्द का प्रयोग उपपन्न नहीं हो सकता । पृथ्वोसन्तानगत एकत्व को सांवृत वासनामूनक मानकर भी एकवचनान्तता को उपपत्ति नहीं की जा सकती क्योंकि यदि एकरम को सांवृत-प्राविधक माना जायगा तो कल्पस्थायिश्वादि मी प्राविद्यक हो जायगा और उसी प्रकार सारा बाह्य पदार्थ हो प्राविधक हो जायगा तो सर्वलोप- सबंशून्यता की आपत्ति होगी। प्रत: उक्तसूत्र का ययाश्रत अर्थ में भावमात्र को क्षणिक मानने पर उक्त बचन का विरोध अनिवार्य है।।१२६॥ १३० वीं कारिका में बुद्ध के एक बचन को भावपात्र को स्थसिद्धि में अनुकूल बताया गया है। [विविज्ञयाः' वचन को अनुपपत्ति ] रूप-रस-गन्ध-स्पर्श शब्द ये पांच बाह्य पदार्थ इन्द्रियजाय और मनोजन्य इन दो ज्ञानों से ग्राह्य है-यह भी एक बुद्ध का वचन है । यह वचन भी प्रस्तुत यानी भावों के प्रक्षणिकत्व की सिद्धि के साधन में बुद्ध के प्रति बुद्ध मतानुयाधियों की प्रास्था के अनुसार भी प्रमाण हो जाता है ।।१३।। १३१ वी कारिका में पूर्वोक्त कारिका के प्रतिपाद्य का उपपादन किया गया है- . [क्षणिकवाद में एक विषय विज्ञानद्वयगृहीत नहीं होता] बद्ध ने रूपादि विषयों को इन्द्रिय और मन से उत्पन्न दो विज्ञानों से ग्राह्य कहा है किन्तु रूपादिविषय यदि क्षणिक होंगे-अपने जन्मक्षण के निरन्तर उत्तरकाल में नष्ट होंगे तो दो विज्ञानों से ग्राह्य

Loading...

Page Navigation
1 ... 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248