Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 4
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 243
________________ क्या० क० टीका और हिन्दी विवेचना ] i २२९ अन्यथा 'घट-पटपोर्न घटरूपम्' इत्यादौ सप्तम्यर्थान्वयितावच्छेदक घटरूपत्वादिस्वरूपाया आधेयताया वट-पटोभयनिरूपिताया अप्रसिद्धत्वेनाऽनिषेध्यत्वेऽपि 'जाति-घटयोर्न सत्ता' इत्यादाविव 'घट-पटोभयनिरूपितत्वाभाववदाधेयतावद्वरूपम्' इत्यन्ययोपपादनेऽपि 'घट-पटयोर्घट जैसे साकांक्ष नहीं होगा उसी प्रकार 'द्वयोर्गुरुत्वं' यह वाक्य भी गुरुत्वसामानाधिकरण्येन पृथिवीजलोभरवत्तित्व के प्रन्यय बोध में साकांक्ष नहीं होगा और गुरुत्याबद्देदेन उक्त वृत्तित्व का अन्वय बोध मानते में प्रमाण नहीं हो सकेगा क्योंकि समग्रगुरुत्व में पृथिवीजलोभयवृत्तित्व नहीं है। यदि इस वाक्य के प्रामाण्य के अनुरोध से इसे गुरुत्वत्व सामानाधिकरण्येन पृथ्वीजलो भयत्वाश्रय वृत्तित्व के बोध में साकांक्ष माना जायगा तो 'द्वयोन गन्ध:' इस अंश में प्रमाण न हो सकेगा क्योंकि जसे yees के प्रश्रयमूत भिन्न भिन्न गुरुत्व में पृथ्वीजलवृत्तित्व होने से गुरुत्वत्व सामानाधिकरण्येन पृथ्वी जलोभयत्वा श्रयनिरूपितवृत्तिश्व प्रर्थात् पृथोवीजलगतोभयत्व के श्राश्रय को वृत्तित्व में गुरुत्वत्य का सामानाधिकरण्य है उसी प्रकार पृथ्वीजलोभयत्व के श्राश्रय पृथिवी में गन्ध के विद्यमान होने से के ratजलोभयत्व के प्रश्रयनिरूपितवृत्तिश्व में गन्धत्व का भी सामानाधिकरण्य है । प्रतः गुरुश्व समान गन्ध में भी पृथ्वी-जलोभयत्वाश्रय वृत्तित्व का प्रभाष बाधित है। अत एव 'द्वयोः गुरुत्वं' इस विधि के विषयभूत अर्थ का और द्वयोनं गन्धः इस निषेधविषयीभूतमर्थ का निर्वाचन निरूपण नहीं हो सकता । यदि यह कहा जाय कि 'योग' रुत्वं न गन्ध:' इस स्थल में द्विशब्दोत्तर सप्तमी विभक्ति का श्रर्थ प्राधेषता है और वह श्रावेपता अपने अन्दयितावच्छेदक गुरुव से अभिन्न है। प्रथवा गुरुत्वत्व से प्रतिरिक्त एवं गुरुत्वश्व की समनियत है और उस में सप्तमी विभक्ति के प्रकृतिभूत द्विशब्द से श्रभिप्रेत पृथ्वी- जलोमय रूप अर्थ का उक्तायता निष्ठ निरूपितत्व सम्बन्ध से अन्यय होता है । इस प्रकार पृथिवीजलो भयविशिष्टाधेय से गुरुत्व की विधेय रूप में और गन्ध की निषेध्यरूप में प्रतीति हो सकती है क्योंकि गुरुत्वत्वरूपापता अथवा गुरुत्वत्वसमनियताधेयता निरूपितत्वसम्बन्ध से अलोम विशिष्ट होती है और वह गुरुत्व में विद्यमान है किन्तु गन्धरवस्वरूप अथवा गन्धश्वस्वसनियताधेयता केवल पृथ्वी से विशिष्ट होती है पृथ्वीजलोभय से विशिष्ट नहीं होती. प्रत: श्राधेयता पृथ्वी जलोमय से विशिष्ट होती है उस का गन्ध में प्रभाव है किन्तु इस कथन से मी प्रतिवादी का मनोरथ सिद्ध नहीं हो सकता क्योंकि ऐसा मानने पर शब्दान्तर से गुरुत्व सामान्य की निषेध्यता बोधित होतो है. जिस से वस्तु को सामान्यविशेषात्मकता का फलित होना अनिवार्य है, क्योंकि पुरुत्वसामान्य से अतिरिक्त गुरुत्वनिष्ठाधेयता का स्वतन्त्र निरूपण नहीं हो सकता । प्रतः प्रारूप से गुरुत्व को विधेय कहना गुरुत्वसामान्यको ही विधेय कहने में पर्यदसित होता है । [ प्राधेयता विधि-निषेध का विषय नहीं है ] aft द्वयोर्गुरुत्वं न गन्ध:' इस वाक्यजन्यबोध में विभिन्न गुरुत्व व्यक्तियों से कथञ्चित् भिन्नाfreeसामान्य को विधेय और विभिन्न गन्धव्यक्ति से कथञ्चित् मिन्नाभिन्न गन्ध सामान्य को निषेध्य न मानकर पृथ्वी जलोमय विशिष्ट प्राधेयता को या तादृशाधेयत्वरूप से गुरुस्व को विधेय और गन्ध में तराता को निषेध्य माना जायगा तो 'घटपदयोर्न घटरूपम्' इस वाक्य से घटरूप में घटपटोमय विशिष्ट सप्तम्यर्थ के अन्वयितावच्छेदक स्वरूप प्राधेयता का निषेध नहीं हो सकेगा।

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