Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 4
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 206
________________ १६२ ] Jशा वा० समुच्चय न ४-श्लो० ११३ "एकम्यार्थम्वभावस्य प्रत्यक्षस्य सनः स्वयम् । कोऽन्यो न दृष्टो भागः म्याद् यः प्रमाणे परीक्ष्यते ॥१॥ नो चेद् ? भ्रान्तिनिमित्ते न संयोज्येत गुणान्तरम् । शुक्ती चा रजताकारो रूप्यसाधर्म्यदर्शनात् ॥२॥" इति चेत ? न, क्षणिकवादाविय सच्चेतनत्यादायप्यनिश्चयप्रसङ्गात , बस्तुनो निरंशत्वात , अनि. होगा । जिस के फलस्वरूप भावमात्र को क्षणिकता का सिद्धान्त ही धराशायो हो जायगा । दूसरी बात यह है कि-निविकल्प के सम्बन्ध में सहकारी के सानिध्य और असानिध्य से कार्यजनकत्व और कार्याः जनकत्व को कल्पना नहीं हो सकती कि यह कल्पना यहां होती है जहां सहकारीसम्पन्न हेतु में कार्य का प्रन्यय-यतिरेक ज्ञात रहता है. असे कुम्भकार प्रादि से सहकृत मदादि द्रव्य में घटादि कार्य के अन्वय-व्यतिरेक का दर्शन होने से कुम्मकारादि सत्कृतं मावि में घटादि को जनकता का निश्चय होता है। किन्तु अभ्यास प्रादि से सहकृत निर्विकल्पक के अन्वय-व्यतिरेक में विकल्प के अन्वयव्यतिरेक का दर्शन सिद्ध नहीं है । अत: अभ्यासादि सहकृत निविकल्पक में विकल्पविशिष्टज्ञान के जनकत्व की कल्पना न्यायसंगत नहीं है। क्षिरिणकत्व का विकल्पानुभव न होने का कारण-बौद्ध] इस सम्बन्ध में बौद्ध की ओर से यदि यह कहा जाय कि "घटादि के निर्विकल्पकाल में यपि घटादि के क्षरिएकत्व का भी अनुभव होता है, तो मो उसका विकल्प नहीं होता इसके दो कारण हैं । एक तो यह कि क्षणिकत्व के विकल्प का कारण संनिहित नहीं रहता और दूसरा यह कि क्षणिकत्व के विकल्प का विरोधी सन्निहित रहता है, जैसे क्षणिकत्व के विकल्प का कारण है क्षणिकर का फल=निर्णीतक्षणिक के साधर्म्य का ज्ञान । वह निर्विकल्पककाल में नहीं रहता इसलिये कारण के अभाव में रिण करव के विकल्प का न होना उचित ही है। और उसका न होना इसलिये भी उचित है कि उनका विरोधी सन्निहित रहता है जैसे क्षणिकत्व के विकल्प का विरोधी है अक्षणिकत्व का प्रारोप, उस प्रारोप के उपस्थित होने से क्षणिकत्व का विकल्प नहीं होता। यह नहीं कहा जा सकता कि-'क्षणिकस्वग्राही प्रध्यक्ष हो अक्षणिकत्व के प्रारोप का प्रतिबन्धक हो जायगा अतः अणिकत्व का अारोप नहीं हो सकता क्योंकि प्रक्षणिकत्व के प्रारोप का प्रतिबन्धक क्षणिकत्वक निश्चय होता है और बौनुमत में निधिकल्प प्रत्यक्ष निश्यपरूप नहीं होता। सो विषय को 'एकस्वार्थ' इस कारिका से भी स्पष्ट किया गया है। "प्रत्येक अर्थ अपने निविकल्प काल में अभिन्न स्वभाव से प्रत्यक्षगृहीत होता है-उस का कोई भी माग ऐसा नहीं होता जो निर्विकल्प प्रत्यक्ष से दृष्ट न होता हो और जिस की परीक्षा अन्य प्रमाणों से अपेक्षित हो।" नविकल्पक के बाद उस के विषयभूत अर्थ में जो गुणान्तर का संयोजन होता है वह भ्रम के निमित्त से सम्पादित होता है, क्योंकि गुणान्तर संयोजना । गुणान्तरसंबन्ध का ज्ञान) भ्रमरूप होती है। यदि प्रर्थ का निर्विकल्पकप्रत्यक्ष से प्रष्ट मी कोई माग माना आयगा तो वह सविकल्पक काल में अर्थ में गहीत होनेवाला गुणान्तर होहो सकता है जिसका संयोजन निविकल्पक गहीत अथ में सम्बन्धज्ञानभ्रान्त विकल्प प्रत्यक्ष के निमित्त से उत्पन्न होता है । एवं यह भी कहा जा सकता है कि

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