Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 4
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 207
________________ स्या. फ. टीका और हिन्दी विवेचना ] [ १९३ श्चितस्यानुभवे मानाभावाच्च । 'नान्तरीयकत्वादेकानुभवोऽन्यानुभवे मानमिति चेत् १ न, चन्द्रग्रहणेऽपि तदेकन्याऽग्रहणतस्तैमिरिकदर्शनेन व्यभिचारात् , द्वित्त्वे तस्य भ्रान्तत्वेऽपि चन्द्रेऽभ्रान्तत्वात , प्रमाणतरव्यवस्थाया व्यवहारिजनापेक्षयात. "प्रामाण्यं व्यवहारेण शास्त्र मोहनिवर्तनम्" इति त्वयैवाभिहितत्वाद अन्यथैक चन्द्रदर्शनस्यापि चन्द्ररूपे प्रमाणता, क्षणिकत्वे शप्रमाणता, इति रूपद्व यस्याभ्युपगमविरोधात् । रजताकार शुक्ति का ही एक माग है जो शुक्तिस्वरूप से शुस्तिग्रहणकाल में प्रष्ट रहता है मोर जब शुक्ति का केवल इदम्त्वरूप से ग्रह होता है तब रजतसादृश्यदर्शन से शुक्तित्वग्रहणकाल में प्रष्ट रजताकार का ग्रहण होता है। किन्तु यह वास्तविक स्थिति नहीं हैं, इसलिये तथ्य यह है कि निर्विकल्प काल में गृहीत होने वाले क्षणिक प्रर्य का कोई भी भाग प्रष्ट नहीं रहता। किन्तु हरट होने पर भी अनिर्णीत रहता है।" [णिकत्ववत सद् अंश के अनिश्चय की बौद्ध को प्रापत्ति ] यह बौद्ध वचन ठीक नहीं है, क्योंकि यदि निर्विकल्प प्रत्यक्ष से इष्ट होने पर भी जैसे क्षणिकस्वादि का निर्णय नहीं होता उसी प्रकार निर्विकल्प से गहोत होने पर भी सवेश का प्रौर वशनांश का भी निश्चय नहीं होगा क्योंकि निर्विकल्पगहीतत्व रूप से उन सभी अंशो में कोई अन्तर नहीं है। यदि यह कहा जाय कि-'क्षणिकत्व, सवंश और दर्शनांश में निविकल्पकगहीतत्व समान होने पर मी क्षणिकरव का निश्चय न होने और सदंश दर्शनांश का निश्चय होने में कुछ बीज है और वह बोज यह है कि अक्षणिकत्व के प्रारोप से क्षणिकत्वनिश्चय का प्रतिबन्ध । तथा सदश एवं दर्शनांश के निश्चय के बीज है उनके विरोधी अंशों के प्रारोप का अभाव । इस अन्तर की कल्पना का साधक है उत्तरकाल में क्षणिकत्व के संशय का होना और सदंश तथा दर्शनांश के संशय काम होना"किन्त इस कथन से भी बौद्ध मत का समर्थन नहीं हो सकता। क्योंकि निर्विकल्पक अनुभव वस्तुगत्या निरंश प्रर्यात अंशाधिशेष का अनाहक होता है या तो वह अपने विषय मूत अर्थ के समी अंशों को उस प्रर्थ के रूप में हो ग्रहण करता है। अत: निविकल्पक द्वारा उस के विषयभूत अर्थ के अंशों का विश्लेषण न हो सकने से इस प्रकार की कल्पना कि 'उस का विषयभूत अमुक अंश निश्चित होता है और प्रमुक अंश अनिश्चित होता है' नहीं हो सकती। यदि इस के समाधान में बौद्ध की और से यह कहा जाय कि-'यह कल्पना निर्विकल्पक के प्रव्यवहितोत्तरक्षण में नहीं हो सकती यह तो ठीक है किन्तु सविकरूपक के बाद इस कल्पना में कोई बाधा नहीं हो सकती क्योंकि सविकल्पक से पूर्वगृहीत प्रर्थ के अंशों का विश्लेषण हो जाता है- तो बौद्ध का यह कथन भी उस के मन को निर्दोष करने में समर्थ नहीं हो सकता क्योंकि बौद्ध मत में क्षणिकस्व का निश्चय न मानने पर भी निर्विकल्पक काल में उस का अनुभव माना जाता है जिस में कोई प्रमाण नहीं है। यदि इस के उत्तर में बौद्ध की ओर से यह कहा जाय कि-'सत्त्व का अनुभव तो उसके निश्चय द्वारा प्रमाणिक है और सत्त्व यह 'यत् सत् तत् क्षणिकम्' इस व्याप्ति से क्षणिकत्व का नान्तरीयफ है अतः सत्व के अनुभव से क्षणिकत्व के अनुभव का अनुमान हो सकता है जिस का प्रयोग इस प्रकार हो सकता है-क्षणिकत्वं सत्वानुमवकालोनानुभवविषयोमूतं -सत्यनान्तरीयकत्वात् । यत्

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