Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 4
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 214
________________ २०० ] [ शा. बा. समुच्चय स्त० ४ श्लो० ११२ न च वासनाप्रबोधविधायकत्वेन तम्यापि हेतुत्वम् , इन्द्रियार्थमनिधानम्यैव तत्प्रबोधहेतुत्वात , 'तद्धेतो.' इति न्यायात् । न च वामनाप्रभवत्वेनाऽमजस्यैवं भ्रान्तता स्यात्, अर्थप्रमवन्येनानुमानरत् प्रमाणत्वात् सामान्यादिविषयत्वम्य तुल्यत्वात् । न च स्वग्राह्यम्याऽवस्तुत्वेऽप्यध्यवमायम्य स्वलक्षणन्त्राद् दृश्य-विकल्प्यायवेकीकृत्य प्रवृत्तग्नुमानम्यअध्यवसाय का जनक हो नान तदयं में प्रमाण होता है। इस नियम का भङ्ग हो मायगा । इसलिये तदुपसि-तत्सारूप्य और तदर्थाध्यवसाय इनके विना मो अध्यवसाय को प्रमाण मानना युक्तिसंगत है। यदि तिर्यक सामान्य तथा जगत् को सांशता इन दोनों को म स्वोकार करके भी प्रमादि-प्रसस्य विकल्पवासना से हो जगत् के विविधप्रतिमास की उत्पत्ति की जायेगी लो विकल्पवृद्धि में दर्शन भी कारण न हो सकेगा। कि उक्त वासना से हो समो सविकल्पक प्रतीतियों का उच य हो जाएगा। फलतः 'दर्शन जिस अर्थ में सविकल्प बुद्धि को उत्पन्न करता है उसी प्रथं में प्रमाण होता है बौद्ध का यह अभ्युपगम बाधित हो जायगा। वासनाप्रबोधक कौन ? दर्शन या इन्द्रियर्मनिकर्ष बौद्ध की अोर से यदि यह कहा जाय कि-'पूर्वविकल्पजन्य वासना से नूतन विकल्प की उत्पत्ति मानने पर भी उस वासना का प्रबोधक होने से दर्शन को भी विकल्प का हेतु मानना प्रावश्यक है।' तो यह ठीक नहीं है क्योंकि दर्शन के हेतु इन्द्रियार्थसंनिकर्ष को ही वासनाप्रबोध का हेतु माना उचित है क्योंकि यह न्याय है-'तषेतोरेवास्तु किं तेन ?' जिसका तात्पर्य यह है कि जो कार्य जिस कारण के कार्यरूप से अभिमत है उस कार्य को उस कारण के हेतु से ही उत्पन्न मानना चाहिये न कि उससे । क्योंकि उसके सन्निधान के लिये उसके हेतु का सन्निधान अनिवार्य होगा। तो यदि उस कारण का हेतु उस कारण के अभिमत कार्य का हेतु हो सकता है तो उसी को उसके कार्य का सोधा हेतु माना लेना चाहिए । बीच में उसकी उत्पत्ति की कल्पना गौरवग्रस्त है। जैसे-मंगल से विध्नध्वंस पूर्वक मङ्गल जन्य अपूर्व को समाप्ति का कारण मानने वाले के मत में अपूर्व के का णीभूत विनध्वंस से अपूर्व के कार्य रूप में प्रमिमत समाप्ति को सोधो उत्पत्ति हो सकमे से बीच में में अपूर्व में को कल्पना अनावश्यक यानी गौरवापावक होती है। [वासनाजन्यत्व मात्र से विकल्प अप्रमारण नहीं हो सकता] यदि यह कहा जाय कि “इन्द्रिय जन्य विकल्प को वासनाजन्य मानने पर वह प्रमाण न होकर भ्रमात्मक हो जायगा"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि वासनाजन्य होने पर भी वह अर्थजन्य भी है। इसलिये अनुमान के समान वह भो प्रमाण हो सकता है । वासना से उपस्थापित सामान्यादि विषयक होने से उस में प्रामाण्य की अनुपपत्ति को शंका नहीं की जा सकती क्योंकि सामान्याविविषयक अनुमान में भी समान है। इस पर यदि यह कहा जाय कि-"यपि अनुमानात्मक अध्यबसाय से ग्राह्य सामान्यादि अवस्तुभूत है तो भी स्वलक्षण होने के कारण दृश्य पर से ब्यपदेश्य-वास्तव विशेष रूप अर्थ और विकल्पविषयीभूत सामान्य को एकीकृत रूप में ग्रहण करके प्रवृत्त होता है प्रत एव प्रनुमान प्रमाण होता है। प्राशय यह है कि अनुमानात्मक अध्यवसाय का मूल मूत व्याप्तिज्ञान सामान्याश्रयी होता है अर्थात सामान्यमात्र का अवलम्बन करके प्रवृत्त होता है क्योंकि सम्पूर्ण धम और सम्पूर्णवह्नि का ज्ञान होने से घूमत्व और वह्नित्व के रूप मे हो धूम मौर वहिव्याप्ति का

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