________________
१८४ ]
[ शा० वा समुरुचय स्त० ४-श्लो० ११३
'अर्थसामर्यप्रभवं बैंशा नालीकग्राहिणि सविकल्पके, किन्तु निर्विकल्पक एवे' ति चेन ? न, अर्थसामध्यंप्रभवेऽपि दुरस्थितपादपादिज्ञाने चशद्यादेरभावात् , अनीशेऽपि च बुद्धादिज्ञाने नद्भावाद् वैशद्यादेपर्थप्रभवत्वाऽनियमात ।
अथ दृग्त्वादिदोषाभावोऽपि वैशये नियामकः, बुद्धज्ञाने च चिरातीतभाविनामपि विषयाणां हेतुत्वाभ्युयगमाद् न दोष' इति चेत् १ न, चिरातीतादिविषयाणां येन स्वभावेन उसको शुक्ति में रजत को अध्यारोप नहीं होता । इस संदर्भ में यह कहना उचित नहीं हो सकता कि.जसे ईश्वर का अध्यवसाय न होने पर भी ईश्वर का अध्यास होता है उसी प्रकार निविकल्पक का ज्ञान न होने पर भी उसका प्रध्यारोप हो सकता है क्योंकि ईश्वर के प्रयासरूप भ्रम में ईश्वर का विशेष रूप से प्रभास नहीं होता किन्तु सामान्य रूप से तो प्रवमास होता है और वह सामान्य रूप अप के पूर्व भी जात ही रहता है। जैसे नवाधिक के मत में प्रभ्युपगत "जगत सकर्तृकम्' "जगह कर्ता से जाय है" यह ज्ञान अनीश्वरवाधियों को दृष्टि से अबमास रूप है । इस में ईश्वर का प्रधभास कर्तृत्व रूप से होता है और कर्तृत्व भ्रम के पूर्व अज्ञात नहीं है किन्तु घटादि कर्ता कुम्हार में विदित है"-तो इस कथन से सविकल्पक में निर्विकल्पक के तादात्म्याध्यास में कोई क्षति हो नहीं सकती, क्योंकि निर्विकल्पक का निविकल्पकत्व अश अज्ञात है इसलिये उस रूप से सविकल्पक में निविकल्पक का तारात्म्य अध्यास भले न हो किन्तु विशदत्वरूप से उसके तादात्म्याध्यास में कोई बापा नहीं हो सकती क्योंकि विशद अंश पूर्व में अनुभूत है और बौद्ध को सविकल्पक में निर्विकल्पक से विशद अश का हो तादात्म्याध्यास मान्य है ।"-तो यह बौद्ध कथन ठीक नहीं है क्योंकि सविकल्पक प्रत्यक्ष विशव रूप में ही प्रमाणत: निर्णीत होता है । अतः प्रमाण से निर्णीत होने के कारण वैशद्य सबिकल्पक का अनारोपित रूप है । अत: उसमें उसका प्रारोप नहीं हो सकता । सविकल्पक प्रत्यक्ष के अतिरिक्त ऐसी किसी वस्तु का अनुभव नहीं है जिससे वैशच को उसका वास्तविक धर्म मान कर सविकल्पक में उसकी कल्पना (प्रारोप) की जा सके और यदि वंशध सविकल्पक का वास्तविक धर्म होते हुए भी सविकल्पक में उसको कल्पना मानो जायेगी तो विशदत्व को ही प्राशर मान कर इसके अनुसार सविकल्पक में अनुसूयमान अपर धर्म को भी यदि बौद्ध को प्रोर से काल्पनिक कहा आयेगा तो यह कहते हुए बौद्ध के मुख को हाथ से कौन बंध करे ? कहने का प्राशय यह है कि जो जिसका वास्तविक धर्म है उसमें उसका प्रारोप नहीं होता किन्तु उसकी प्रमा होती है। अन्यथा, यदि किसी एक वास्तविक धर्म को प्रारोपित माना जायेगा तो अन्य धर्म को मो उसी इटल से प्रारोपित मान लिये जाने से धर्मों का अस्तित्व ही संकटग्रस्त हो जायेगा।
यदि यह कहा जाय कि-'अर्थसामर्थ्य-यानो हन्द्रियार्थ संनिकर्ष प्रथवा अथ शियाकारि प्रामाणिक अर्थ से वशद्य निष्पन्न होता है, किन्तु सविकल्पक प्रलोक-काल्पनिक प्रर्थ का ग्राहक होता है इसलिये उसमें वेशध नहीं होता केवल निविकल्पक में ही वेशद्य होता है कि वह अर्थसामर्थ्य से प्रादुर्भूत होता है-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि दूरस्थ वृक्षाव का ज्ञान भी अर्थसामर्थ्यजन्य होने पर भी उस में वैशद्य नहीं होता है और बजादि योगियों का ज्ञान अर्थसामर्यजन्य नहीं होने पर भी उसमें वंशध होता है । प्रतः वंशय का नियामः अर्थसामथ्यं जन्यत्व नहीं हो सकता।
यदि यह कहा जाय कि अर्थवभत्र यह दूरत्वादि दोषाभाव से सहकृत्त होकर वंशय का नियामक होता है-ऐसा मानने में कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि पायपज्ञानस्थल में दूरस्व दोष है,