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स्या० ऋ० टीका-इन्दीविवेचना ]
किश्च, कोऽयं मयिकल्पा-ऽविकल्पयो क्याध्यवसायः १ किं तयोर्वस्तुसदभेदपरिच्छेदः ? उन मिथस्तादात्म्याध्यामः १ आये विरोधः । अन्त्ये च निर्विकल्पक 'सविकल्पकम्' इति, सविकल्पकं च निर्विकल्पकम्' इति प्रतीयेत. 'शताविदं रजतम्' इतिवन, न तु विशदाध्यक्षस्वरूपम् । अथ प्रमुष्टनिर्विकल्पकत्वस्य विशदत्वावच्छिन्नस्य निर्विकल्पकस्यैव सविकल्पकेऽध्यागेपाद् न दोपः । एतेन-'अविकल्पकाऽज्ञानाद् न तदध्यारोपा, न प्रतिपन्नरजतः शुक्ताविदं रजतम्' इत्यध्ययस्यति न वेश्वगध्यवसाय ईश्वगाध्या पबदुपपत्तिः, भ्रमविशेषाऽव्यवस्थिते.'इत्युक्तावपि न शनिः, प्रागनुभृतस्यैव विशदस्यात्राभेदाध्यासात् , इति चेत् ? न, वेशद्यावली. ढम्यैव तस्य प्रमीयमाणल्वेन तत्र सदारोगायोगान् । नहि तदप किंचिदनुभूयते यस्य वेंशयं धर्म: कल्प्येत । एवमपि तत्र तत्परिकम्पने ततोऽप्यपरमनुभूयमानं विशदत्वादि धमाधान परिकल्पयतः कस्तव मुखं पाणिना पिधने ?
अर्थ को ग्रहण करने वाले सविकल्पक ज्ञान में उसका मारोप करता है। सविध ल्पक बुद्धि वस्तुतः प्रविशदाकार हो होतो है. उसमें वशका भान प्रारोपात्मक है"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि जो प्रध्यवसाय अनुभवसिद्ध है उसका अपलाप करके अनुभवबाह्य निविकल्पक प्रत्यक्ष की कल्पना करने पर जैसे सविकल्पक के पूर्व अनुमवबाह्य निविकल्पक की ल्पना की जाती उसी प्रक बुद्धि की और चतन्य को भी कल्पना की जा सकती है। जैसा कि सांख्यो का मत है कि चतन्य के प्रतिबिम्ब को धारण करने वाली बुद्धि से ही निविकल्पक सविकल्प प्रादि परिणामात्मक ज्ञान उत्पन्न होते हैं । फलतः इस सांख्पमत का प्रतिषेध करना बौज के लिए असम्भव हो जायेगा।
मौद्ध को प्रोर से जो यह कहा गया है कि 'सविकल्पक प्रौर नियिकल्पक इन दोनों को अव्यहितोत्पत्ति होने से दोनों में मनुष्य को ऐक्य का निश्चय होता है इस विषय में यह स्पष्ट करना होगा कि उन दोनों में जो ऐक्य का अध्यवसाय होता है वह दोनों के वास्तविक प्रभेद का परिच्छेदरूप होता है या वह दोनों में परस्पर तादात्म्य का प्रध्यास-भ्रमरूप होता है ? इन में से प्रथम पक्ष को मानने में विरोध है क्योंकि सविकल्पक और निर्विकल्पक में वस्तुत: भेद होता है । एवं दूसरे पक्ष में निविकल्पक सविकल्पक है' और 'सविकल्पक मिविकल्पक है इसप्रकार की प्रतीति होनी चाहिए, जैसे इवन्य रूप से दृश्यमानशुक्ति और रजत का परस्पर तादात्म्य अध्यास 'इदं रजतम्' एवं 'रज. तमिवम्' में होता है। किन्तु सविकल्पक का ऐसा ज्ञान नहीं होता है । यह सो विशद अध्यक्ष के रूप में अनुमूत होता है । यदि बौद्ध की ओर से यह कहा जाय कि- निविकल्पक के दो रूप हैं-एक निर्विकल्पकत्व और एक विशवस्व । इन में निर्विकल्पकत्व का प्रमोष यानो त्यागहोकर विशवस्वरूप से निविकल्पक का सविकल्पक में ऐक्यारोप होता है प्रतः मिविकर पकं सहिकल्पकम्' इस प्रकार दोनों का ऐक्यारोप न होकर 'विशदं सविकल्पकम् इस प्रकार होता है । इसलिये दोनों मामो में परस्पर तादात्म्य का प्रध्यासरूप ऐक्य का प्रध्यवसाय मानने में कोई दोष नहीं है। इस पर यदि यह कहा जाय कि-"सविकल्पक काल में निविकल्पक प्रज्ञात रहता है अत: सविकल्प में उसका प्रध्यारोप-तावात्म्यप्रध्यास नहीं हो सकता क्योंकि पूर्वज्ञात वस्तु का हो कालान्तर में प्रध्यास होता है । यह सुस्पष्ट ही है कि जिसको रजत का ज्ञान पहले से नहीं होता