Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 4
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 194
________________ १८० ] [ शा०या० ममुच्चय स्त. ४-श्नोक ११३ अथ तुल्याकारापि प्रतिपनिर्यदि निनिमित्ता तदा सर्वदा भवेत् , न वा कदाचित , व्यक्तिनिमित्तत्वे आम्रादिविय घटादिष्वपि तत्प्रमगात , व्यक्तिरूपताया अन्यत्रापि समानस्वादिति चेत् ? न, प्रतिनियतव्यक्तिनिमित्तत्वेनानतिप्रसङ्गात् । यथा हिताः प्रतिनियता एव कुतश्विद् निमित्तान प्रतिनियतजातिभ्यञ्जकत्वं प्रपद्यन्ते, तथा प्रतिनियता तुल्याकारां प्रतिपत्तिमपि तत एव जनयिष्यन्ति, इति किमपरजातिकल्पनया ! यथा वा गडूच्यादयो भिमा एकजातिमन्तरेणापि ज्वरादिशमनात्मक कार्य निर्वतयन्ति, तथाऽऽम्रादयस्तरुत्व. मन्तरेणाति हस्ताइते प्रीति अमपिबन्तीति कि तरुत्वादिकल्पनया ? ततो जात्यादरभावाद् न तद्विशिष्ट्राध्यवसायिनी मतिरिति चेत् ? यह स्पष्ट है कि अर्थ और ज्ञान इन दो व्यक्तियों से अतिरिक्त शरीर के रूप में ग्राह्याकारता को स्पष्ट रूप से धारण करती हुई जाति बाह्यवर्शन में प्रथमासित नहीं होती है। यदि यह कहा जाय कि 'पाम्रबकुलादि वृक्षों में प्रिय तरुः' इस रूप से तरु शब्द का उल्लेख करती हुई बुद्धि का प्रवभास यानुभविक है, प्रतः इस बुद्धि से तरुत्व जाति को सिद्धि सम्भव होने से जाति को प्रसत् कहना प्रसंगत है'-तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि 'तरुः तरुः' इस विकल्प में तरुत्य का उल्लेख होने पर भो बाह्य न्द्रिय से ग्राह्याकार में जाति का प्रवभास नहीं होता । प्रत. उक्त अनुभव से प्राम्रबकुलादि में होनेयालो प्रतीति की ही तुल्याकारता सिद्ध होती है । उस प्रतीति के विषयभूत पाम्र बकुलादि वृक्षों में तुल्याकारता की सिद्धि नहीं होतो। [जाति के विना तुल्याकार प्रतोति न होने को आशंका यदि इस पर यह कहा जाय कि-'शव और प्रतीति के विषयभूत अर्थ में जाति को माने विना शब्द और प्रतीति में भी तुल्याकारता नहीं हो सकती-' तो यह ठीक नहीं है क्योंकि गोस्वादि जातियों को प्रतीतियों में 'जाति:' इस प्रकार को तुल्याकारता गोत्वादि जातियों में अन्य जाति को माने विना भी सिद्ध है। यदि यह कहा जाय कि-'जाति:' इस प्रतीति के अनुरोध से गोत्यादि जातियों में मो जातित्व नाम को अन्य जाति मान ली जायगी और उसी से उन प्रतीतियों की तुल्याकारता सिद्ध होगो'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि एसा मानने पर अनवस्था दोष की प्रसक्ति होगी। क्योंकि जैसे घटत्वादि सामान्यों में जाति:' यह प्रतोति उपपन्न करने के लिये जातिस्त्र नाम की जाति मानी जायगी, उसी प्रकार जातित्व में भी जातित्व नाम को जाति माननी होगी क्योंकि जातित्व को जाति मानने पर 'घटत्वादिक जाति:' यह बुद्धि जिस प्रकार होती है उसी प्रकार 'जातित्वं जाति:' यह बद्धि भी होगी। इस बुद्धि को उपपत्ति यदि उसी जातित्व से करेंगे तो प्रात्माश्रय होगा और यदि घटत्वादि में एक जातित्व और घटत्वादि एवं जातित्व में दूसरे जातित्व की कल्पना करके यदि प्रथम जातित्व से घटत्वादि में जाति प्रतीति की और दूसरे जातित्व से जातित्व में जाति को प्रतोति की उपपत्ति करेंगे तो फिर उस दूसरे जातित्व में 'जातिः' इस प्रकार की प्रतीति की उपपत्ति करने के लिये तीसरे जातित्व की कल्पना करनी होगी। इस प्रकार जातित्व की कल्पना का विश्राम ही नहीं होगा।

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