Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 4
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 193
________________ स्या क० टीका और हिन्दी विवेचना ] [१ ऽविषयत्वात् । तस्मादध्यक्ष संविद् निरस्तविशेषणमर्थमचगच्छति, विशेषण योजना तु 'स्मरणादुपजायमानाऽपास्तानार्थसंनिधिर्मानसी' इति प्रतिपत्तव्यम्, बहिरर्थावभासिकाभ्यो विशदसंविद्भयः स्वग्रहणमात्र पर्यवसितानां सुखादिसंविदामिवार्थसाक्षात्करणा-ऽस्वभावा यास्तस्या भिन्नस्वेन बाधकाभावात् । न च जात्यादिविशिष्टार्थप्रतिपत्तेः सविकल्पिका मतिः, जात्यादेः स्वरूप नवभासनात् । न हि व्यक्तिद्वयाद् व्यतिरिक्तवपुर्याद्याकारतो बहिचिंत्राणा विशददर्शने जातिरामाति । न चाम्रत्रकुलादिषु 'तरुस्तरुः' इत्युल्लिखन्ती बुद्धिरामातीति नासती जातिरिति चाच्यम् विकल्पोल्लिख्यमानतयापि बहिग्रयाकारतया जातेरनुद्भासनात् प्रतीतिरेव तत्र तुल्याकारता विमर्तीति । न च शब्दः प्रतीतिर्वा जातिमन्तरेण तुल्याकारतां नानुभवति, 'जातिर्जातिः' इत्यपरजातिव्यतिरेकेणापि गोन्बादिसामान्येषु तयोस्तुल्याकारतादर्शनात् । न च तेष्वप्यपरा जातिः, अनवस्थाप्रसक्तेः घटत्वादिसमान्येषु जातित्ववज्जातित्वसहितेष्वपि तेषु तत्कल्पनानुपरमात् श्रावश्यक होगा। दूसरी बात यह है कि, दो वस्तुग्रों में होनेवाला विशेषण- विशेष्यमाव वास्तविक तभी हो सकता है जब प्रधान उपसजन ( गौण ) भाव रूप हो । अर्थक्रियाजनकत्व की अपेक्षा विशेष्य में प्रधानता और प्रक्रिया प्रयोजकत्व की अपेक्षा विशेषरण में गौणता होगी, जसे 'दण्डविशिष्ट पुरुष धान्यक्षेत्र से श्रश्व का अपसारण करता है।' यहाँ दंड अश्वापसारण रूप प्रर्थक्रिया का उपकरण होने से प्रक्रिया का प्रयोजक होने के कारण गौण होता है । किन्तु यह वास्तविक विशेषण- विशेष्य भाव कल्पनात्मक बुद्धि का विषय नहीं हो सकता । अर्थात् निर्विकल्प के उत्तरक्षण में जो बुद्धि उत्पन्न होती है वह कल्पनात्मक होती है, क्योंकि इस में काल्पनिक जात्यादि के सम्बन्ध का भान होता हैं । श्रत: वास्तव विशेषण विशेष्य भाव उसका विषय नहीं बन सकता। इसलिये युक्ति से यही सिद्ध होता है कि प्रत्यक्षात्मक संवित् विशेषणनिर्मुक्ति ही अर्थ को ग्रहण करती है। उस प्रत्यक्ष-गृहीत श्रर्थ में विशेषरणों की योजना जन विशेषरणों के स्मरण से होती है और यह मानस वृद्धि होती है, उसमें अर्थ के साथ चक्षु इन्द्रियों के संनिकर्ष की अपेक्षा नहीं होती । उस बुद्धि का स्वभाव अर्थ के साक्षात्कार करने का नहीं होता । श्रतः उसको बाह्यार्थ को ग्रहण करने वाली प्रत्यक्षात्मक विशद बुद्धि से मिन मानने में उसी प्रकार कोई बाधक नहीं है जैसे बाह्य श्रथं का ग्रहण न करनेवाली और स्वहा प्रान्तरवस्तुमत्र के ग्रहण में ही पर्यवसन्न होने वाली सुखादि विषयक बुद्धियों में बाह्य अर्थ को ग्रहण करनेवाली स्पष्ट बुद्धियों से भेव मानने में कोई बाधक नहीं है । [निविकल्प प्रत्यक्ष से जातिसिद्धि की प्राशंकर ] यदि यह कहा जाय कि निर्विकल्पक प्रत्यक्षरूपा बुद्धि मी वस्तुगत्या जात्याविविशिष्ट घटादिरूप प्रयं को हो ग्रहण करती है। उसी से दूसरे क्षण सविकल्पक बुद्धि उत्पन्न होती है जो जाश्यादि वेशिष्टघ को विषय करती है । तो इस प्रकार जब निर्विकल्पक बुद्धि वस्तुगश्या जात्यादिविशिष्ट अर्थ को विषय करती है तो उससे जात्यादि को सिद्धि अवश्य होगी क्योंकि उसकी प्रमाणता में कोई विवाद नहीं है' तो यह भी ठीक नहीं, क्योंकि, निर्विकल्पक प्रत्यक्ष में जात्यादि के स्वरूप का ग्रहण नहीं होता और जाति पदार्थ सत् भी नहीं है वह तो काल्पनिक है ।

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