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[ शा. वा. समुचय स्तः ४ श्लोक १०
अथाभिना न संक्रान्तिरस्या वासकरूपवत् । वास्ये सत्यां च संसिडिई व्यांशस्य प्रजायते ||१०||
अथाभिन्ना वासकरणादु वासना तदा तस्या वासकरूपवद् निरन्वयविनष्टत्वेन चास्ये संक्रान्तिरन्ययरूपा न स्यात् । सत्यां च अभ्युपगतायां च संक्रान्तौ द्रव्यांशस्य संसिद्धिः जागते अन्य कान्ति विनैव वासना भविष्यतीत्यत आह
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द्र असत्यामपि संक्रान्तौ वासयत्येव चेदसौ । अतिप्रसङ्गः स्यादेवं स च न्यायवहिष्कृतः ॥ ९१ ॥
असत्यामपि सक्रान्तौ वासकसंवेधरूपायाम् चेदसौ=वासकक्षणः वासयत्येव वाम्यम्, दैवं सति अतिप्रसङ्गः स्यात् अन्यस्यापि वासनप्रसङ्गात् सत्र न्याय बहिष्कृतः =
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युक्तिवाधितः ॥९१॥
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[ वासक से वासना भिन्न होने पर दोष ]
बौद्ध- पूर्णक्षणजीवी प्राणी अपने द्वितीयक्षण में उत्पन्न होनेवाले दूसरे क्षणजीवी प्राणी को अपने कर्मों के संस्कार से वासित करता है। इस प्रकार पूर्वक्षण वासक और उतरक्षण वास्य होता है और यह वास्यवासक भाव जिस वस्तु से होता है उसे वासना कहा जाता है। पुण्य-पाप श्रादि श्रन्य शब्दों से भी उसका व्यवहार होता है । बौद्ध को इस मान्यता के सम्बन्ध में दो विकल्प प्रस्तुत किये जा सकते हैं । (१) एक यह कि पूर्वक्षण जिस वासना से उत्तरक्षण को वासित करता है वह वासना वासक क्षण से भिन्न है अथवा (२) वासकक्षण से अभिन्न है ? इन विकल्पों में प्रथम विकल्प स्वीकार्य नहीं हो सकता क्योंकि यदि वासना वासक से भिन्न होगी तो वासक स्वयं उस वासना से शून्य होगा, ऐसी दशा में जब स्वयं उसके पास ही वासित करने का साधन न रहेगा तो वह दूसरे को बासित कैसे कर सकेगा ? क्योंकि वह भी वासनाहीन अन्य क्षणों के समान हो होगा ||८||
६० व कारिका में दूसरे विकल्प को अनुपपत्ति बतायी गई है।
[ बासक वासना प्रभेव पक्ष में द्रव्य की सिद्धि ]
afa वासना वासकक्षण से प्रभिन्न होगी तो वासक का नाश होने पर स्वयं भी निरम्य नष्ट हो जायगी। इसलिये वास्य के उत्तरक्षण में उसका ( वासना का ) अन्वय रूप संक्रमण न हो सकेगा । धतः उस से उत्तरक्षण का वासित होना सम्भव न होगा । यदि उत्तरक्षण में वासना की संक्रान्ति मानी जायगी तो उस में कोई अंश ऐसा मानना होगा जो पूर्वोत्तर दोनों क्षणों में अनुगत हो, जिस के द्वारा वासना की संक्रान्ति हो सकेगी । यह अंश अन्वयात्मक होगा, क्योंकि इस की अनुगति पूर्वक्षण और उत्तरक्षण दोनों में है । इसीलिये वह द्रव्य नाम से भी संज्ञात हो सकेगा । क्योंकि 'द्रवति= विभिलक्षणेषु षावति यत्, तद् द्रव्यं' और 'धनु' = पूर्व क्षणसम्बन्धानन्तरं उत्तरक्षणे 'एति गच्छति' इस व्युत्पत्ति से द्रव्य और प्रन्वय दोनों शब्दों का अर्थ समान होता है ।
६१ वीं कारिका में संक्रान्ति के बिना भी वासना की सम्भावना का निरसन किया गया है