Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 4
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 181
________________ स्था० १० टीका भौर हिन्धी विवेचना ] [ १६७ एतदेव स्पष्टयनाह न पूर्वमुत्तरं येह तदन्याऽग्रहणाद् ध्रुधम् ।। गृह्यतेऽत इदं नातो नन्वतीन्द्रियदशनम् ॥१०८।। ३६-दादी, पूर्व कामता श्रयः, उत्तरं च-तत्प्रतियोगि न गृह्यने, ध्रुव निश्चितम् , तदन्याऽग्रहणातू-अधिकृतदर्शनवेलायामन्याऽदर्शनात । ततः अत इदम् अग्न्यादेधूमादि-इत्यन्वयज्ञानम् , नात: जलादेः इदम् अग्न्यादि इति व्यतिरेक ज्ञानम् , ननु अममायाम् , अतान्द्रियदर्शनम-इन्द्रियातीतम् पूर्व प्रत्यक्षम् ! न चान्यय व्यतिरेकाऽग्रहादेव कारणताग्रहः, कार्यानुकतान्वय-व्यतिरेकप्रतियोगित्वरूपकारणतायां तयोघंटकत्वान , घट्यग्रह. स्य च घटकग्रहाधीनत्वाद , अनन्यथामिनियतपूर्ववनित्वरूपनगृहेऽपि सहचारग्रहत्वेन अन्वय-व्यतिरेकाभ्यां वा तद्ग्रहहेतुत्वावश्यकत्वात् । न च शक्तिरूपकारणतापि धमिग्रहमात्रात सुग्रहा, तस्या अनुमेयत्वादिति दिग् ॥१०८॥ [पूर्वोत्तर ग्रहण का असंभव ] १०८ वीं कारिका में उपर्युक्त विषय को हो स्पष्ट किया गया है कारिका-प्रर्थ इस प्रकार है-बौद्ध मत में पूर्व यानी कारण और उत्तर यानी कारणप्रतियोगी अर्थात् कार्य एक ग्राहक से गहित नहीं होते यह निश्चित है, क्योंकि एक के ग्रहणकाल में अन्य का ग्राहक नहीं रहता, जैसे कार्य के दर्शन काल में कारण का और कारण के दर्शनकाल में कार्य का दर्शन नहीं रहता । इसलिये अग्नि के रहने पर धूम होता है यह अन्वयज्ञान, प्रौर अग्नि भिन्न अस्लादि के रहने पर अर्थात् अग्नि न रहने पर धूम नहीं होता है यह स्यतिरेक मान नहीं हो सकता । यदि एक ग्राहक से अग्नि और घम का मान न होने पर भी ऐस। प्रत्यक्ष माना जायगा तो यह प्रक्षम्य होगा, क्योंकि यह प्रत्यक्ष एक इन्द्रियातीत प्रपूध प्रत्यक्ष होगा। प्रर्थात् बौद्धमत में प्रत्यक्षज्ञान इन्द्रियसापेक्ष हो होता है और यह प्रत्यक्ष इन्द्रिय निरपेक्ष होगा क्योंकि धूमप्रत्यक्षकाल में अग्नि के न होने से उस काल में अग्नि का प्रत्यक्ष इन्द्रियनिरपेक्ष हो होगा । क्योंकि उस समय अग्नि विद्यमान न होने से उस में इन्द्रिय व्यापार संभव नहीं हो सकता। इस संदर्भ में बौद्ध की और से यदि यह कहा जाय कि-'कारणता का ज्ञान इस अन्य रयहिक के ज्ञान के बिना ही होता है, अतः अन्वय-व्यतिरेक ज्ञान सम्भव न होने पर कोई प्रापत्ति नहीं है-'तो यह ठोक नहीं है। क्योंकि.कारणता कार्य द्वारा अनुकृत अन्य व्यतिरेक का प्रतियोगिरव रूप है। मत एवं इस के शरीर में कार्य और कारण दोनों ही घटक है । और कारणता उन दोनों से घट्य से य: स घट्यः' इस पुस्पत्ति के अनुसार घटित है, और घटित का मान घटक के ज्ञान के प्रधान होता है। इस पर बौद्ध को और से यदि यह कहा जाय कि 'कारणता उक्त प्रतियोगित्वरूप नहीं है किन्तु अन्यथासिद्ध नियतपूर्ववतित्व रूप है । अर्थात् कार्य के प्रति अन्यथा सिद्ध न होना और कार्य के अव्यवहित पूर्व क्षण में कार्याधिकरण में नियम से रहना ही कारणता है और इस में कार्यनिरुपित

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