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[शा.वा. समुच्चय स्त०४-रलो०६३
परः सिंहावलोकितेन स्वाभिप्रायमाह
तसज्जननस्वभावं जन्यभावं तथा परम् ।
अतः स्वभावनियमान्नायुक्तः स कदाचन ॥९॥ तत्-कारणं मृदादि, तज्जननस्वभाव-घटादिजनमम्वभावम् , तथा परं-घटादि, जन्यभावं-मृदादिजन्यस्वभावम् । अतः स्वभावनियमाद् हेतु-फलयोः सः हेतु-फलभावः न कदाचनाऽयुक्तः, अन्त्यावस्थायां सर्वेषां प्रत्येकमभिमतकायोत्पादकत्वात् , अन्यमंनिधेस्तु स्वहेतुप्रत्ययसामर्थ्यनिमित्तत्वेनोपालम्मानहत्वात् । न च भिन्नकार्योत्पत्तिः, सर्वेषां तस्यैव जनने सामर्थ्यात् । अथवा, मृदादिक्षण एव शक्तिरूपा घटादिहेतुना वास्तवी, अन्यत्र तु पौर्वापर्यनियममात्रम्, इति न विभागाभावादिदोप इति ।।६३॥
उभयोग्रहणाभाव न तथाभावकल्पनम् ।
सयोाग्य न चकेन द्वयोहणमस्ति वः ॥१४॥ (स्वभाव से हो घट-मिट्टी के जन्य जनक भाव की सिद्धि-बौद्ध) बोद्ध का कहना है कि मिट्टी प्रादि कारणों में घटादि कार्यों को उत्पन्न करने का स्वभाव होता है और घटादि कार्यों में मिट्टी आदि कारणों से ही उत्पन्न होने का स्वभाव होता है । इस स्वभावमूक नियम से कार्य और कारणों में कार्य-कारणभाव उपपन्न हो सकता है प्रतः क्षणिकतापक्ष में कार्य कारण भाव को प्रयुक्त बताना ठीक नहीं है । जिन कारण क्षणों के संनिधान होने पर किसी अभिमत कार्य की उत्पत्ति होती है वे समी कारण क्षण अपनी अन्तिम अवस्था में अर्थात् अपने पूर्व सन्तानों से पृथक होने की अवस्था में सब मिलकर अभिमत कार्य को उत्पन्न करते हैं। 'दण्ड-चकादि कारणों का संनिधान मृत्तिका में ही क्यों होता है, तन्तुमादि में भी क्यों नहीं होता जिस से वे तन्तु के संनिधान में पट के भी उत्पादक हो सके ?' इस प्रकार का उपालम्म नहीं दिया जा सकता, क्योंकि दंड चनादि अन्य कारणों का सन्निधान प्राकस्मिक नहीं होता किन्तु हेतु (उपादान कारण) प्रौर प्रत्यय (निमित्त कारण) के सामथ्र्य से होता है। दंड-चक्रादि के खेत मौर प्रत्ययों में ऐसा सामथ्र्य है जिससे उनका संनिधान मिट्टी में ही होता है तन्तु प्रादि में नहीं होता है। मिट्टी-दंड-चकादि विभिन्न कारणों से घटादिरूप कार्य की उत्पत्ति मानने पर विभिन्न घटादि रूप कार्य-उत्पति की मापत्ति मो नहीं दी जा सकती, क्योंकि उन सभी कारणों में उस एक ही कार्य के उत्पादन का सामभ्यं होता है। अथवा यह भी कहा जा सकता है कि शक्तिरूप घट को कारणता मिट्टी में ही होतो है-दंड चक्रादि के साथ उसके पौर्वापर्य का नियम मात्र होता है, इसीलिये मिट्टी घट का उपादान कारण है और दंडादि निमित्त कारण है' इस विभाग के प्रभाषादि दोषों की प्रसक्ति नहीं हो सकती क्योंकि शक्तिरूप कारणता उपादानव्यवहार का और पौर्वापर्य नियम मात्र निमित्तकारण व्यवहार का सम्पादक है ॥६॥
६४ वीं कारिका में बौद्ध के पूर्व कारिका उक्त सामाधान का प्रत्याख्यान किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है