Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 4
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 124
________________ ११.] [शा०या० समुफचय स्त० ४ श्लो०६४ प्रागमत्तायाः सत्तास्वरूपनाशे तादात्म्यसम्बन्धेऽसत एव सच्चापत्तेः, भावरूपनाशस्थ निर्हेतुकस्वानभ्युपगमेन तत्र तदुत्पत्तिरूपसम्बन्धोपगमे च तुच्छस्य जनकत्वप्रसङ्गात् , असम्बन्धे च प्रागसत्ता न निवर्तेतैव नित्यनिवृत्तित्वाद ; एतदनिवृत्तिमभ्युपगम्य तनिवृत्त्यनुभवापलापे च नीलाद्यनुभवस्याप्यपलापप्रसङ्गात् , कम्पनयव सर्वव्यवहारोपपत्तेः, उन्पत्तेः स्वप्नायगतपदार्थमाधारणत्वेनाऽसति सत्वाधानं विना सत्त्वस्य दुर्घटत्वाच्च, इति न किञ्चिदेतत् ॥६४॥ .- . . .....- -.-. पूर्वकाल रूप अधिकरण भी तात्विक है और यदि वह वस्तु में प्राक्कालवृत्तिाव के प्रभाव रूप है तो उस प्रभाव का अधिकरण उत्पन्न होने वाली वस्तु है और वह भी तात्विक है । फलतः यह प्रागसत् काल्पनिक न हो कर तात्त्विक है और यही उत्पत्ति का व्याप्य है। इसलिये कार्य के प्राक सत्त्व का प्रापादान. इस कल्पना से भी नहीं हो सकता कि "प्रागसत्त्व तुच्छ है अतः कार्य के पूर्व उसका तात्त्विक प्रभाव है." क्योंकि प्राकसत्त्व का प्रमाव ही प्रागसत्त्य है । तदुपरांत यह मो सोचना यावश्यक है कि कार्य में उत्पत्ति के पूर्व जिस ससा का पापावान करना है वह सत्ता उत्पत्ति रूप है ? अथवा प्राक सत्ता के प्रमाध रूप है ? उत्पत्ति रूप मानने पर उसमें प्राककालिकत्व को सम्मावना नहीं हो सकती । क्योंकि कार्य में जो प्राककालवृत्तित्व के प्रभाव रूप प्रागसत्त्व है वह कार्यात्मक धर्मी कार्यात्मकाधिकरणस्वरूप है और उस धर्मों की उत्पत्ति रूप सत्ता प्राक्काल में किसी को भी मान्य नहीं है । तथा उसके प्राककालवृत्तित्व का भी प्रापावान नहीं हो सकता क्योंकि प्राक्कालवृत्तित्व को धर्मोंरूपताप्राककालवृत्तित्वाभावरूप प्रागसत्य के प्रभ्युपगम से ही प्रतिहत है । इसी प्रकार प्रागर प्रभाव रूप सत्ता की कल्पना नहीं हो सकती क्योंकि उसका उदय प्राक प्रसत्त्व की कल्पना से ही प्रतिरुद्ध है। अतः प्रागसस्थामाव की कल्पना असविषयक होने से भ्रमरूप होगो और भ्रमरूप होने के कारण उससे प्राक्काल में कार्य की सत्ता नहीं सिद्ध हो सकती।" - किन्तु बौद्ध का यह पूर्वपक्ष ठोक नहीं है । क्योंकि प्रागसत्व के तुन्छ-काल्पनिक होने पर भी कार्योत्पत्ति काल में जो उसका नाश होता है वह उस क्षण में होनेवाला जो सत्तात्मक कार्य तत स्वरूप हो है प्रतःप्रागसत्त्वनाश के साथ प्रागसत्व का तादात्म्य सम्बन्ध मानने पर प्रसत में ही सत्त्य को अपत्ति होगी। यदि उसका उस नाश के साथ उत्पत्तिरूप सम्बन्ध मानेगे तो भावरूप नाश निर्हेतुक न होने से उसे उस नाश का जनक मानना होगा जिससे तुच्छ में जनकत्व को प्रापत्ति होगी। यविनाश के साथ प्रागसत्ता का कोई सम्बन्ध न मानेगे तो प्रागनसत्ता अनिवृत्त रह जायेगी। क्योंकि वह अनादि से तो अनुवर्तमान है हो और प्रागे भो उसकी अनुवृत्ति कालोप न होने पर वह नित्यनिवृत्तिस्वरूप हो जायेगी । अगर उसकी अनुवृत्ति मानी जायेगी तो कार्योत्पत्ति के समय कार्य की प्रागसत्ता को निधत्ति के अनुभव के समान ही नीलादि के अनुभव का भी अपलाप हो जायेगा । फलत: नोलादि वस्तु की भी सिद्धि नहीं होगी। क्योंकि नोलादि के व्यवहार को उपपत्ति नीलाधि की कल्पनामात्र से ही उपपन्न हो जायेगी। इसके अतिरिक्त यह भी ध्यान देने योग्य है कि उत्पत्ति स्वप्नदृष्ट पदार्यों की भी होती है और स्वप्नरष्ट पदार्य वस्तुतः असत् होते हैं। इसलिये असत् में सत्त्व का उपपादन भी दुर्घट है । सारांश, बौद्ध का उक्त कथन प्रकिश्चित्कर है ॥६॥

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