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ear० क० टीका और हिन्दी विवेचना ].
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स्वादिगर्भतथा जनकतावच्छेदकत्वादिति मिश्रेणैवोक्तत्वात् । न चात एव गुणादिविशिष्ट - प्रत्यक्षे गुणादिसमवायत्वेन हेतुत्वम् न च समवायत्वमपि नित्यसंबन्धत्वरूपमित्युक्तदोषाऽनिस्तार इति वाच्यम्, समवायस्याखण्डतथा तव्यक्तित्वेनैव हेतुत्वात् । तद्यक्तित्वं च तादारम्येन सा व्यक्तिरेव इति वाच्यम् गुणादिसमवायत्वापेक्षया गुणत्वादिनैव हेतुत्वौचित्यात् ।
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उनका प्राय यह है कि सम्बन्धस्य विशेषणविशेष्य दोनों से मिल होते हुये विशिष्टबुद्धि को जन्म देने की योग्यतारूप है । अर्थात् विशिष्टबुद्धिजननयोग्यत्व रूप है। इस में विशिष्टबुद्धिजननयोग्यश्व का अर्थ विशिष्टबुद्धिस्वरूपयोग्यत्व ही हो सकता है और तत्स्वरूपयोग्यता का अर्थ होता है सत्रिरूपित कारणतावच्छेवकधर्मवत्त्व | इसकी उपपत्ति सम्बन्ध में तभी हो सकती है जब सम्बन्ध में किसी अन्य रूप से विशिष्टबुद्धिकारणता सिद्ध हो । किन्तु यह कारणता सामान्य रूप से सिद्ध नहीं है। यह कार साता अर्थात् कार्य-कारण भाव तो संयोगादिनिष्ठ संसर्गताक बुद्धित्व -संयोग आदि रूप से ही सिद्ध है प्रतः समवाय में उक्त सम्बन्धत्व नहीं माना जा सकता । चूंकि समवाय में विवाद होने से समबाय निष्ठसंसर्गता कबुद्धित्व और समवायत्य रूप से कार्य कारण भाव प्रसिद्ध है । यदि समस्त संसर्ग में विशिष्ट धित्य और सम्बन्घत्वरूप से कारणता मानी जाय तो यह भी सम्भव नहीं है। क्योंकि, सम्बन्धत्व का संसगंताख्यविषयतारूप में निबंधन करने पर विशिष्टबुद्धि के पूर्व ससर्गता विशिष्ट की सत्ता अपेक्षित होगी बूं कि कार्योत्पत्ति के पूर्व कारणतावच्छेदक विशिष्ट कारण की सत्ता अपेक्षित होती है और संसगंताख्यविषयता विशिष्ट बुद्धि के पूर्व हो नहीं सकतो चूंकि विषयता ज्ञानसमानकालिक होती है | अतः सम्बन्धश्व विशिष्ट बुद्धि का जनकतावच्छेदक नहीं हो सकता ।
( व्यक्तित्व रूप से समवाय काररणता का समर्थन - नैयायिक)
यदि नैयायिक की और से कहा जाय कि सम्बन्धत्व जनकतावच्छेदक नहीं हो सकता, इसी कारण गुणादि विशिष्टविषयक प्रत्यक्ष में विशेषणसम्बन्ध को गुणादिसमवायस्वरूप से कारण माना जायगा । इसके विरुद्ध प्रतिवादी यदि यह कहें कि - 'समवायत्य नित्यसम्बन्धत्वरूप है अतः उसको कारणतावच्छेदक मरनने पर उक्त दोष का निस्तार नहीं हो सकता' तो यह ठीक नहीं है, चूंकि समवाय एक है अत एव उसे तद्यक्तित्वरूप से हो कारण माना जा सकता है। तवृष्यक्तित्व तादात्म्य सम्बन्ध से तद्व्यक्तिरूप ही है । तादात्म्यसम्बन्ध से तद्व्यक्तिरूप में तद्व्यक्तित्व के निर्वाचन का प्राशय यह है कि तद्ध्यक्तिगत प्रसाधारण धर्मस्वरूप मानने पर समवाय सद्after रूप से कारण नहीं हो सकेगा क्योंकि समवाय में समवायत्य से भिन कोई प्रसा धारण धर्म है नहीं । श्रतः समवायनिष्ठतव्यक्तित्व मी समवायत्वरूप होगा और समवायत्व नित्यसम्बन्धत्य रूप है और सम्बन्धस्व मिश्रमतानुसार विशिष्टबुद्धि का कारणतावच्छेदक होता नहीं । अतः समवाय को तद्व्यक्तित्वरूप से कारा मानना सम्भव नहीं हो सकता । प्रतः तादात्म्येन तद्वयक्ति को तक्तिस्वरूप मान कर समवाय के कारणत्व का समर्थन किया जा सकता है और यही उचित भी है क्योंकि व्यक्तित्व को तव्यक्ति का असाधारण धर्म रूप मानने पर तद्घट तद्रूपस्पर्श तदेकत्व प्रावि श्रनेक प्रसाधारण धर्म होने से विनिगमना विरह से तघटनिष्ठत व्यक्तित्व को अनेक रूप मानना होगा । अतः सव्यक्तित्व को तादात्म्यसम्बन्धेन तद्वचक्ति रूप मानने में लाघव