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स्था. क० टीका-हिन्दी विवेचना ]
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न विरुष्यते, तुम्छतयाऽत्यन्ताऽभावतुल्यत्वेऽपि कादाचित्कत्वेन भारतुल्यत्वात् ; अन्यथा शशविपाणादेखि नित्यमभारोपरागेणेव मानं स्यात् , तथा घटाऽसचं नास्ति' इत्युल्लेखः स्यात् । अथास्तित्वं यदि सत्ता तदा तथोल्लेखे इष्टापत्तिरेव, यदि च कालसबन्धस्तत् तदा बाधा न तथोन्लेख इति चेत् तहि अवमिछम्मकालसम्बन्धात् तदेवोत्पादादिमच्चमायातम् । इति घट्टकुदया प्रभातम् । 'काल्पनिक एवायं नाशः, काल्पनिकमेव चास्योत्पादादिक्रमिति न तेन प्रसङ्ग इति पेत् ? तर्हि सट्पटित क्षणिकत्वमपि काल्पनिकमेव इति गतं सौंगतस्य सर्वस्वम् ।।३६॥ दोषान्तरमाहमूलम-तदेव न भवत्येत बिमडमिष लक्ष्यते । .
नदेव' वस्तुसंस्पर्शाद् भवनप्रतिषेधतः ॥३७॥
भाव का भभकी हो प्रभाष का भवन है इसलिए अभवन निश्चितरूपसे तथाधर्मफ यानीजेयत्वस्वभाव है। प्रत एव उसमें उक्त विकल्प अर्थात् 'वह घटका स्वभाव है या अस्वभाव है इस प्रकार का विकल्प प्रसङ्गत नहीं हो सकता। क्योंकि तुच्छ होने के कारण प्रत्यन्तामाव के तुल्य होने पर भी कादाचित्क होने से मात्र के तुल्य भी होता है । यदि वह प्रस्थन्ताभाव के हो तुल्य होता तो शशविषारणादि के समान सवैख प्रभाव द्वारा ही उसका बोध होता, फलतः 'घटाऽसत्त्वं नास्ति' इस रूप में हो घटासस्व की प्रतीति का उल्लेख होता।
यदि कहा जाय-'इस सन्दर्भ में यदि अस्तित्व सत्तारूप हो तो 'घटाऽसत्त्वं नास्ति' इस उल्लेख की नापत्ति इष्ट ही है क्योंकि घटाऽसत्त्व में सत्ता का प्रभाव नहीं होता और यदि अस्तित्व कालसम्बन्धरूप हो तब तुच्छ घटाऽसस्व में कालसम्बन्धाभाष का बाघ होने से 'घटाऽसत्त्वं नास्ति' इस उल्लेख का प्रसङ्ग ही नहीं हो सकता है। तो बौद्ध कर. यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि प्रयछिन्न काल का सम्बन्ध मानने से उत्पत्ति ही प्राप्त हो जाती है अर्थात् प्रसत्त्व के साथ कालविशेष का सम्बन्ध मानने से उसको उत्पत्ति प्रावि का ही प्रसन हो जाता है। प्रतः इस प्रकार का विचार नदी के घाट उपर नदी पार उतरने वाले के पास से कर-उद्ग्रहरण के लिए बनी हुई कुटो में प्रभात होने के समान हो जाता है । यदि यह कहा जाय कि-"नाश काल्पनिक है और उत्पत्ति प्रादि भी काल्पनिक ही है। प्रत एवं वास्तव उत्पत्ति और नाश का प्रसङ्ग नहीं हो सकता. एवं च घटाऽसत्त्व के काल्पनिक नाश से घट के पुनरुन्मज्जन को प्रापत्ति नहीं हो सकती"- तो यह ठीक नहीं है क्योंकि यदि उत्पत्ति और नाश कल्पित ही होगा तो उससे घटित क्षणिकस्व भी काल्पनिक हो होगा। फलतः, ऐसा मानने पर 'भाव मात्र क्षणिक होता है' सौगत का यह सिद्धान्तसर्वस्व ही समाप्त हो जाता है ॥३६॥
[ बौद्ध पक्ष में विरोध का उद्भावन ] इस (३७) कारिकामें, ३३ वीं कारिका में प्रभावो भवति' इस कथन का 'मानो न भवति' इस कथन में बताये गये पर्यवसान में, विरोध दोष का उद्धावन किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है
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