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[ शा. वा. समुच्चय ० ४ श्लोक-३३
मूलम् -'भावेष विकल्पः स्याद्विधेर्वस्वनुरोधतः । न भावो भवतीत्युक्तमभावो भवतीत्यपि ||३३|| भावे हि वस्तुनो भवने, एषः तत्त्वाऽन्यस्त्रयोरनिष्टप्रसङ्गादिरूपः विकल्पः स्यात् । कुतः ? इत्याह-विधेः शब्दादिना विधिव्यवहारस्य वस्त्वनुरोधतः = वस्त्वालम्ब्यैव प्रवृत्तेः, अवस्तुनि तदभावात् ।
ननु यद्येवं कथं तर्हि 'शशविषाणमभावो भवति' इत्यादिर्व्यवहारः ९ इत्यत आह'अभावो भवति' इत्ययुक्ते 'भावो न भवति' इत्युक्तम् तस्य तत्रैव तात्पर्यात ; अन्यथा विधिव्यवहारविषयत्वे तत्र तुच्छतेव न स्यात् ।
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ननु योग्याऽनुपलब्ध्या शशशृङ्गाभावग्रहात तंत्र कालसम्बन्धार्थक भवनविधानमविरुद्धम्, प्रतियोगि प्रतियोगिव्याप्येतरत्ववद् दोषेवरत्वस्याऽपि योग्यताशरीरे निवेशात्, अन्यथा हृदादी वहयादिश्रमकोपसच्चे नानुपलम्भः, तदसखे तु न योग्यता इति तत्र बहून्याकहा जा सके, किन्तु इतना हो कहा जा सकता है कि पूर्व क्षण में होनेवाली वस्तु उत्तरक्षरण में नहीं होती है। यदि इतना भी नहीं होगा तो उसका नाश नहीं होगा ॥३२॥
इस पर यह शङ्का हो सकती है कि पूर्वक्षण में विद्यमान घटका उत्तरक्षण में जो प्रभवन होता है उसको घटस्वभाव अथवा घटका अस्वभाव नहीं माना जा सकता, क्योंकि दोनों ही स्थिति में घटके द्वितीय क्षण में मी घट को प्रप्रच्युति यानी घटके श्रन्यय का प्रसंग होगा। क्योंकि घटाभवन को घटका स्वभाव मानने पर घटना कालमें भी घटका प्रस्तित्व मानना आवश्यक होगा, क्योंकि श्राश्रय के बिना स्वभाव का अस्तित्व नहीं माना जा सकता । और यदि घटाभवन घटका प्रस्वमाव माना जायेगा तो घटका नाश होने पर भी घटस्वरूप की निवृत्ति न होगी, क्योंकि किसी वस्तु के पूर्व स्वभाव की निवृत्ति उस वस्तु के ही उत्तरवर्ती विरोधी स्वभावान्तर से ही होती है ।
इस शङ्का में प्रयुक्त योषारोपण का उत्तर ३३ वीं कारिका में दिया गया है ।
[ विकल्प प्रयोग प्रवस्तु में नहीं हो सकता ]
घटके अभवन के विषय में जो यह विकल्प उठाया गया है कि- "वह घटस्वभाव होगा या घटस्वभाव से मित्र होगा" यह विकल्प उसके सम्बन्ध में नहीं उठाया जा सकता। क्योंकि शब्दादि द्वारा इस प्रकार का व्यवहार वस्तु अनुरोधी होता है । अर्थात् किसी वस्तु के हो सम्बन्ध में ऐसे व्यवहार की प्रवृत्ति होती है अवस्तु में नहीं होती । प्रभवन प्रभावात्मक होने से प्रवस्तु रूप हैं। प्रत एव उसके विषय में उक्त विकल्प का उत्पान प्रसम्मथ है ।
इस पर यदि कहा जाय कि "ऐसा मानने पर तो "शशविषाणं प्रभावो भवति ।" यह मी व्यवहार न हो सकेगा।" - तो यह कथन ठीक नहीं है । क्योंकि 'अभावो भवति प्रभाव होता है इस शब्द से भी 'भावो न भवति' भाव नहीं होता-इसी की पुनरुक्ति होती है। 'प्रभावो भवति' शभ्य का तात्पर्य 'मावो न भवति' इसी प्रर्थमें होता है, क्योंकि ऐसा न मानकर यदि शशविषाण को 'प्रभावो भवति' इस प्रकार विषिरूप व्यवहार का विषय माना जायेगा तो उसको तुच्छता ही समाप्त हो जायेगी ।