Book Title: Shaddarshan Samucchay
Author(s): Vairagyarativijay
Publisher: Pravachan Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 18
________________ मुक्त जीव शरीर तथा संसार में रहकर भी अनासक्त रहता है । सांसारिक वस्तओं को वह असत्य समझता है। उनके प्रति उसे कोई आसक्ति नहीं होती । वह संसार में रहकर भी संसार से विरक्त रहता है । किसी प्रकार की आसक्ति या किसी प्रकार की भ्रान्ति उसकी बुद्धि को विचलित या प्रभावित नहीं कर सकती । मिथ्याज्ञान के कारण वह पहले अपने को ब्रह्म से पृथक् समझता था । मिथ्याज्ञान के दूर होने पर उसके दुःखों का भी अन्त हो जाता है । जिस तरह ब्रह्म आनन्दस्वरूप है, उसी तरह मुक्त आत्मा भी वैसा ही हो जाता है। (२) रामानुज उपनिषदों की व्याख्या इस प्रकार करते हैं—ईश्वर ही पारमाथिक सत्ता है । अचित् या अचेतन प्रकृति और चित् या चेतन आत्मा ईश्वर के ही अंश हैं । वह सर्वज्ञ तथा सर्वशक्तिमान् है । इसमें अच्छे अच्छे सभी गुण वर्तमान हैं । ईश्वर में अचित् सर्वदा वर्तमान रहता है । ईश्वर ने अचित् से इस संसार की उसी प्रकार उत्पत्ति की है जिस प्रकार मकड़ी अपने शरीर से अपने जाल की सृष्टि करती है । आत्मा भी सर्वदा ईश्वर में वर्तमान रहते हैं । वे अणु हैं । उनका स्वरूप स्वभावतः चिन्मय है । वे स्वयं प्रकाशमान हैं । कर्मानुसार प्रत्येक आत्मा को शरीर धारण करना पड़ता है । शरीरयुक्त होना ही बन्धन है । आत्मा का शरीर से पूर्णतः सम्बन्धविच्छेद 'मोक्ष' कहलाता है । अज्ञान से कर्म की उत्पत्ति होती है । कर्म ही बन्धन का कारण है । बन्धन की अवस्था में आत्मा अपने स्वरूप को नहीं पहचान सकता । वह शरीर को ही अपना स्वरूप समझता है । अतः उसके आचरण भी उसी प्रकार के होते हैं । वह इन्द्रियसुख के लिये लालायित रहता है। वह संसार में आसक्त हो जाता है और इसी आसक्ति के कारण उसे बार बार जन्म ग्रहण करना पड़ता है । वेदान्त से मनुष्य को ज्ञान होता है कि मनुष्य का आत्मा उसके शरीर से भिन्न है । यह ईश्वर का एक अंश है, अतः इसका अस्तित्व ईश्वर पर ही निर्भर है । अनासक्त भाव से वेदविहित धर्मों का आचरण करने से कर्मों की सञ्जित शक्ति नष्ट हो जाती है और अनन्त ज्ञान प्राप्त होता है । साथ ही साथ यह ज्ञान भी प्राप्त होता है कि ईश्वर ही एकमात्र सत्ता है जो प्रेम के योग्य है । मनुष्य 17

Loading...

Page Navigation
1 ... 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146