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सौत्रान्तिक बाह्यार्थ की सत्ता की स्वीकार करता है, लेकिन बाह्यार्थ इन्द्रियग्राह्य नही है अपितु अनुमेय है। यह मत बाह्यार्थानुमेयवाद के नाम से प्रचलित है । सौत्रान्तिक के अभिप्रायानुसार निर्वाण अवस्तुसत् पदार्थ है ।
योगाचार मत विज्ञानवादी है। इस मत का मानना है कि विज्ञान की ही सत्ता पारमार्थिक है । क्योंकि जागतिक प्रवृत्ति का निर्वाह विज्ञान से ही होता है । प्रवृत्तिविज्ञान और आलयविज्ञान के भेद से विज्ञान दो प्रकार का है । प्रवृत्तिविज्ञान स्थूल जगत् की प्रवृत्ति का कारण है । चित्त की धारा आलयविज्ञान है । निर्वाण सत् पदार्थ है ।
__ माध्यमिक सम्प्रदाय न बाह्यार्थ को सत् मानता है न विज्ञान को । 'शून्य' ही परमार्थ सत् है । शून्य अनिर्वचनीय पदार्थ है । वही सत्य है । निर्वाण भी असत्य है ।
जैनदर्शन : जिन से मतलब है 'रागद्वेषविजेता' । जैनदर्शन के देवता 'जिन' है । अर्हत्, तीर्थकर, जिनेन्द्र इत्यादि उनके पर्याय नाम है ।
तत्त्व छः है । पाँच अस्तिकाय और काल । अस्तिकाय = सावयव = सप्रदेशी द्रव्य । जीव-धर्म-अधर्म-आकाश और पुद्गल यह पाँच द्रव्य अस्तिकाय है।
ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप-वीर्य यह पंचगुणात्मक चैतन्य को आत्मा कहते है । 'धर्म' गति में सहायक द्रव्य है । अधर्म स्थिति में सहायक है । अवकाश-अर्पणा आकाश का स्वभाव है । शब्द-रूप-रस-गंध-स्पर्श-प्रभाआतप इत्यादि पुद्गल के लक्षण है । वर्तमान-भूत-भविष्यत् इत्यादि द्रव्य की वर्तना का कारण कालद्रव्य है ।
स्व-परव्यवसायि ज्ञान प्रमाण है । प्रमाण के दो भेद है । प्रत्यक्ष और परोक्ष । लिंगादि बाह्य सामग्री और इन्द्रियादि सन्निहित सामग्री की सहायता से निरपेक्ष साक्षात् आत्मा को होनेवाला अनुभव प्रत्यक्ष ज्ञान है । यद्यपि इन्द्रियजन्य ज्ञान परोक्ष है फिर भी इनका प्रत्यक्ष के रूप में व्यवहार होता