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अहर्निश ईश्वर की भक्ति करने लगता है तथा अपने को ईश्वर में अर्पित कर देता है । ईश्वर भक्ति से प्रसन्न होते हैं और भक्त को बन्धन से मुक्त कर देते हैं । मुक्त आत्मा देहान्त के बाद कभी जन्म ग्रहण नहीं करता । यह ईश्वरसदृश हो जाता है । ईश्वर के समान उसका चैतन्य भी विशुद्ध तथा दोषरहित हो जाता है । किन्तु ये एक नहीं हो जाते, क्योंकि आत्मा अणु तथा ईश्वर विभु है । अणु विभु नहीं हो सकता । रामानुज के अनुसार ईश्वर ही एक मात्र सत्ता है । ईश्वर के अतिरिक्त और कोई सत्ता नहीं, किन्तु ईश्वर के अन्तर्गत अनेक सत्ताएँ हैं । संसार की सृष्टि सत्य है । अतः रामानुजीय दर्शन को विशुद्ध अद्वैत नहीं कह सकते । उसे विशिष्टाद्वैत कहते हैं । यह अद्वैतवाद इसलिये है कि यह ईश्वर को ही एकमात्र सर्वव्यापी स्वतन्त्र सत्ता मानता है । किन्तु ईश्वर अन्य सत्ताओं (= चिन्मय आत्माओं) से तथा अचित् पदार्थों से विशिष्ट या समन्वित है । इसलिय इसे 'विशिष्टाद्वैत' कहते हैं ।
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३. साङ्ख्य दर्शन :
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साङ्ख्य दर्शन द्वैतवादी है । कहा जाता है कि महर्षि कपिल इसके प्रवर्तक थे । साङ्ख्य के अनुसार दो प्रकार के तत्त्व हैं — पुरुष और प्रकृति । अपने अपने अस्तित्व के लिये पुरुष और प्रकृति परस्पर निरपेक्ष हैं । पुरुष चेतन है । चैतन्य इसका आगन्तुक गुण नहीं, अपितु स्वरूप ही है । वस्तुतः पुरुष शरीर, मन तथा इन्द्रिय से भिन्न है । यह नित्य है । यह सांसारिक वस्तुओं तथा व्यापारों का अवलोकन पृथक् से ही करता है । यह स्वयं न तो कोई कार्य करता है, न इसमें कोई परिवर्तन ही होता है । जिस तरह कुर्सी, पलङ्ग आदि भौतिक वस्तुओं के उपभोग के लिये मनुष्य भोक्ता है उसी तरह प्रकृति के परिणामों के उपभोग के लिये भोक्ताओं की आवश्यकता है । ये भोक्ता पुरुष हैं, जो प्रकृति के परिणामों के उपभोग के लिये भोक्ताओं की आवश्यकता है । ये भोक्ता पुरुष हैं, जो प्रकृति से भिन्न हैं । प्रत्येक जीव के शरीर से सम्पृक्त एक एक पुरुष हैं । जिस समय कुछ मनुष्य सुखी पाये जाते हैं उस समय कुछ मनुष्य दुःखी भी रहते हैं ।
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