Book Title: Shaddarshan Samucchay
Author(s): Vairagyarativijay
Publisher: Pravachan Prakashan

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Page 21
________________ जगत् की सृष्टि इस क्रम से होती है-सत्त्व का आधिक्य होने से प्रकृति से महत् की उत्पत्ति होती हैं, महत् इस विश्व का महान् अङ्कर है । पुरुष का चैतन्य-प्रकाश महत् के सत्त्व गुण पर पड़ता है, अतः महत् भी चेतन ज्ञात होता है । इस घटना के कारण ऐसा अनुभव होता है कि प्रकृति मानों सुप्तावस्था से जाग्रत् अवस्था में आयी हो । इसी के साथ-साथ चिन्तन का भी प्रादुर्भाव होता है । अतः महत् को 'बुद्धि' भी कहते हैं । यही जगत् की सृष्टिकारिणी बुद्धि है । बुद्धि का रूपान्तर अहङ्कार में होता है । 'अहङ्कार' अहम्भाव में सत्त्व का बाहुल्य होता है तो उससे पाँच ज्ञानेन्द्रियों तथा मन की सृष्टि होती है । मन उभयेन्द्रिय है, क्योंकि इसके द्वारा ज्ञान तथा कर्म दोनों सम्भव होते हैं । अहङ्कार में जब तमस् की प्रचुरता रहती है तब उससे तन्मात्राओं की उत्पत्ति होती है । शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गन्ध-पाँच 'तन्मात्रा' हैं । पाँच तन्मात्राओं से पाँच महाभूतों की उत्पत्ति होती है। शब्द से आकाश, स्पर्श से वायु, रस से जल, रूप से अग्नि तथा गन्ध से पृथिवी की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार साङ्ख्य में सब मिलाकर २५ तत्त्व हैं । इसमें पुरुष को छोड़कर सभी तत्त्व प्रकृति के अन्तर्गत हैं, क्योंकि सभी भौतिक तत्त्वों का मूल कारण प्रकृति ही है । प्रकृति का कोई कारण नहीं । महत्, अहङ्कार तथा पाँच तन्मात्रा अपने अपने कारणों के परिणाम या कार्य भी है और अपने कार्यों के कारण भी हैं । ग्यारह इन्द्रियों तथा पाँच महाभूत अपने अपने कारणों के केवल कार्य ही हैं । वे स्वयं किसी ऐसे परिणाम के कारण नहीं है जिनका स्वरूप इनसे भिन्न हो । पुरुष न तो किसी कारण है, न किसी का परिणाम ही है । अर्थात् पुरुष न तो प्रकृति है, न विकृति । पुरुष निरपेक्ष तथा नित्य है। किन्तु अविद्या के कारण यह अपने को शरीर इन्द्रिय तथा मन से पृथक् नहीं समझता । पुरुष और प्रकृति में अविवेक (अर्थात् विभेद न करने) के कारण हमें दुःखों से पीड़ित होना पड़ता है । शरीर के व्रणित (घायल) या अस्वस्थ होने से हम अपने को व्रणित या अस्वस्थ समझते हैं । हमारे मनोगत सुख तथा दुःख आत्मा को भी प्रभावित करते हैं, क्योंकि हम मन तथा आत्मा के भेद को भलीभाँति समझ नहीं पाते ।

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