________________
रूप से श्वास-ग्रहण, धारण तथा त्याग को 'प्राणायाम' कहते हैं । इन्द्रियों को विषयों से हटने का नाम 'इन्द्रियसंयम' अर्थात् 'प्रत्याहार' कहलाता है । चित्त को शरीर के अन्दर या बाहर की किसी वस्तु पर केन्द्रीभूत करने को 'धारणा' कहते हैं। किसी विषय पर सुदृढ तथा अविराम चिन्तन 'ध्यान' कहलाता है । 'समाधि' चित्त की वह अवस्था है, जिसमें ध्यानशील चित्त ध्येय (विषय) में तल्लीन हो जाता है।
योगदर्शन को 'सेश्वर साङ्ख्य' कहते हैं और कपिलकृत साङ्ख्य को 'निरीश्वर साङ्ख्य' । योग के अनुसार चित्त की एकाग्रता तथा आत्मज्ञान के लिये ध्यान का सर्वोत्तम विषय ईश्वर ही है। ईश्वर पूर्ण, नित्य, सर्वव्यापी सर्वज्ञ तथा सर्वदोषरहित है। योग के अनुसार ईश्वर के अस्तित्व के लिये ये प्रमाण दिये जाते हैं—जहाँ तारतम्य है, वहाँ सर्वोच्च का होना नितान्त आवश्यक है । ज्ञान में न्यून्नाधिक्य है । अतः पूर्ण ज्ञान तथा सर्वज्ञता का होना असन्दिग्ध है । जो पूर्ण ज्ञानी या सर्वत्र है वही ईश्वर है। प्रकृति और पुरुष के संयोग से संसार की सृष्टि का प्रारम्भ होता है । संयोग का अन्त होने पर प्रलय होता है । पारस्परिक संयोग का वियोग पुरुष और प्रकृति के लिये स्वाभाविक नहीं है । अतः एक पुरुषविशेष का अस्तित्व परमावश्यक है, जो पुरुषों के पाप तथा पुण्य के अनुसार पुरुष तथा प्रकृति में संयोग या वियोग स्थापित करता है । ५. न्याय-दर्शन :
न्याय-दर्शन के प्रवर्तक महर्षि गौतम हैं । न्याय वस्तुवादी दर्शन है । इसका प्रतिपादन विशेषतः युक्तियों द्वारा हुआ है । इसके अनुसार चार प्रमाण हैं—प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द । १. वस्तुओं के साक्षात् या अपरोक्ष ज्ञान को 'प्रत्यक्ष' कहते हैं । इसकी
उत्पत्ति वस्तु तथा ज्ञानेन्द्रिय के संयोग से होती है । प्रत्यक्ष ज्ञान बाह्य या आन्तर हो सकता है । जिस विषय का प्रत्यक्ष होता है उसका संयोग यदि आँख, कान जैसी बाह्य इन्द्रियों से हो तो उसे 'बाह्य प्रत्यक्ष' कहते हैं । किन्तु यदि केवल मन से संयोग हो तो उसे आन्तर या 'मानस प्रत्यक्ष' कहते हैं ।
B